पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८६०

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । OG पुराणों में एक कथा प्रसिद्ध है कि किसी समय वशिष्ठजी और विश्वामित्र में विवाद हुआ। वशिष्टजी सरसात को और विश्वामित्रजी तप को बड़ा कहने लगे। इसका निर्णय कराने के लिये ".धानों ऋपिवर शेषजी के पास गये। शेषजी ने कहा कि आप दोनों में से कोई थोड़ी देर के लिये पृथ्वी को थाम लें तो मैं उत्तर दूँ। विश्वामित्रजी को अपनी तपस्या का बड़ा गर्व था, उन्हों ने सारी तपस्या का फल लगा कर पृथ्वी ले ली । पर शेषजी के मस्तक हटाते ही वह सम्हल न सकी, तब वशिष्ठजी पल भर सत्सङ्ग के फल से दो घड़ी पर्यन्त पृथ्वी को हाथ से उठाये रहे। यह देख कर विश्वामित्रजी लज्जित हो गये और सत्सङ्ग को बड़ा मान कर लौट आये। चौ०-प्रबिसि नगर कीजे सब काजी। हृदय राखि कोसलपुर-राजा॥ गरल सुधा रिपु करइ मिताई। गो-पद सिन्धु अनल सितलाई ॥१॥ आप अयोध्यापुरी के रोजा रामचन्द्र जी को हृदय में रख कर नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिये । उसके लिये विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करता है, समुद्र गाय के खुर की बराबर होता और भाग शीतल हो जाती है ॥१॥ शङ्का-हनूमानजी केवल एक कार्य सीताजी को ढूँढ़ना चाहते हैं और लदिनी कहती है कि सब काम कीजिये, अन्य कौन से कार्य थे ? उत्तर-(१) सीताजी का पता लगाकर 'सुग्रीव की प्रतिक्षा पूरी करना । (२) रोमकाय। (३) वानरों का श्रम सफल करना। (५) सीताजी के वियोग-जनित दुःख को दूर करना । (५) विभीषण की अभीष्ट सिद्धि । (६) राक्षसों का मान-मर्दन और लङ्का-दहन आदि। गरुम सुमेरु रेनु सम ताही । राम कृपा करि चितवा जाही ॥ अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना ॥२॥ गरुमा सुमेरु पर्वत धूल के समान (हलका) हो जाता है, जिसको रामचन्द्रजी ने कृपा की दृष्टि से देखा। तब अत्यन्त छोटा रूप धारण करके और भगवान् रामचन्द्रजी का स्मरण कर हनुमानजी ने लङ्का-नगर में प्रवेश किया ॥२॥ विष का अमृत होना, शत्रु का मित्र बन जाना, समुद्र का गाय के खुर के तुल्य होना, अग्नि में शीतलता पाना और सुमेरु का रजकण के समान हरुमा होना, यहाँ विरोधी पदार्थ और गुणों के वर्णन में विरोधाभास अलंकार' है। इससे रामकृपा को उत्कृष्टता सूचित होती है जो असम्भव को भी सम्भव कर देती है । ये सभी बातें हनूमानजी पर घटती हैं। विष की राशि सुरसा ने आशीर्वाद दिया, लकिनी शत्रु से मित्र बन गई, समुद्र मो खुर के समान हो गया, लक्का जलाते समय उन्हें अग्नि शीतल हुई और रावण का मान-मर्दन लङ्का दहन सुमेह, था, वह धूल के बराबर हलका (सहल) हो गया। मन्दिर मन्दिर प्रति करि साधा । देखे जहँ तहँ अगनित जोधा ॥ गयउ दसानन मन्दिर माहीं । अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं ॥३॥ प्रत्येक मन्दिरों में खोज कर देखा, जहाँ तहाँ अनगिनती योद्धा दिखाई पड़े। रावण के महल में गये, वह बड़ा ही विलक्षण है जो कहा नहीं जा सकता ॥३॥