रामचरित मानस । से निन्दनीय हूँ। जो हमारा नाम सबेरे ले ले तो उस दिन उसको भोजन न मिले (स से बढ़ कर हीनता क्या होगी?) ॥४॥ दो-अस मैं अधम सखा सुनु, माहू पर रघुवीर । कोन्ही कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर ॥७॥ हे मित्र ! सुनिये, मैं ऐसा अधम हूँ, तो भी रघुनाथ जी ने मुझ पर कृपा की है (ता. आप पर भी अवश्य करेंगे)। स्वामी के गुणों का स्मरण कर आँखों में जल भर आयो HOR चौ० जानतहूँ अस स्वाभि विसारी। फिरहि ते काहे न होहिँ दुखारी। एहि बिधि कहत राम-गुन-ग्रामा।। पावा अनिर्वाच्य बिस्रामा ॥१॥ जानते हुए भी ऐसे स्वामी को भुला कर जो विषयों में भटकते फिरते हैं वे दुखी क्यों न हो ? इस तरह रामचन्द्रजी के गुण गणों को कहते हुए उन्हें अकथनीय आनन्द मिला ॥१॥ पुनि सब कथा बिभीषन कही । जेहि बिधि जनक-सुता तह रही । तब हनुमन्त कहा सुनु भ्राता । देखा चहउँ जानकी माता ॥२॥ फिर जिस तरह जानकी अशोक वाटिका में रहती थीं, वह सब कथा विभीषन ने कही। तब हनुमानजी ने कहा-माई ! सुनिये, मैं जानकी माता को देखना चाहता हूँ ॥२॥ जुगुति बिभीषन सकल सुनोई । चलेउ पवन-सुत बिदा कराई। , करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवा । बन असोक सोता रह जहवा ॥३॥ विभीषण ने (अशोकवन में प्रवेश करने का) साय उपाय कह सुनाया, हनूमानजी उन से विदा मांग कर चल दिये । फिर वही छोटा रूप बना कर वहाँ गये जहाँ अशोकवन में सीता जी रहती थीं ॥३॥ देखि मनहिँ महँ कीन्ह प्रनामा । बैठेहि बोति जात निसि जामा । कृस तनु सीस जटा एक बेनी । जपति हृदय रघुपति गुन खेनो ॥४॥ उन्हें देख कर मन में ही प्रणाम किया, जानकी जी को रात्रि के पहर बैठे ही बीत 'आते हैं। उनका शरीर दुबला है और सिर.पर जटा की एक वेणी (चोटी) हो गई है, हदय में रघ । नाथजी को गुणावली जपती हैं hen दो-निज पद नयन दिये मन, राम-चरन महँ लोन । परम दुखी मा पवन-सुत; देखि जानकी दीन ॥६॥ आँखें अपने पाँव की ओर लगाये हुए और मन रामचन्द्रजी के चरणों में लीन है। जानकीजी को दैन्यावस्था में देख कर पवनकुमार अत्यन्त दुखी हुए ।