पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८६४

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। पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । ७६ चौ-तरु पल्लव मह रहा लुकाई । करइ विचार करउँ का भाई ॥ तेहि अवसर रावन तहँ आवा । सङ्गनारि बहु किये बनावा ॥१॥ वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि भाई! क्या करे ? उसी समय वहाँ रावण आया, उसके साथ में बहुत सी स्त्रियाँ शृङ्गार किये हुए शोभित थीं ॥१॥ बहु बिधि खल सीतहि समुझावा । साम दाम भय भेद देखावा । कह रावन सुनु सुमुखि सयानी । मन्दोदरी आदि सब रानी ॥२॥ उस दुष्ट ने बहुत तरह सीताजी को समझाया तथा साम, दाम, दण्ड और भेद दिखाया। रावण ने कहा-हे सयानी, सुन्दर मुखवाली ! सुनो, मन्दोदरी आदि सब रानियों को ॥२॥ विरोधी मनुष्य को वश में करने के लिए राजनीति को साम, दाम, दण्ड और भेद' ये चार प्रकार की चाले हैं। साम-समता का उपाय अर्थात् समझा बुझा कर वश में करना । दाम-धन दे कर वश में लाना । भय इण्ड देकर वशीभूत करना । भेद-अलगाव डालकर अर्थात् दो चार वा अधिक का एक गुद्द है, उस में विरोध उत्पन्न कर कर आधीन करना। '. रावण ने सीताजी को अपने वश में लाने के लिये इन चारों का प्रयोग किया, पर उसे सफलता नहीं हुई। तव अनुचरी करउँ पन मोरा । एक बार बिलोकु मम ओरा ॥ हन धरि भोट कहति बैदेही । सुमिरि अवधपति परम-सनेही ॥३॥ तुम्हारी दासी बनाऊँगा। यह मेरी प्रतिमा है कि एक बार तू मेरी मोर देना अपने परम प्यारे अयोध्यानाथ रामचन्द्रजी का स्मरण करके जानकोजी तिनके को ओट ले कर कहती मेरी ओर देख' रावण के इस कथन में प्रकट और गुप्त दो प्रकार का अर्थ है । प्रकट तो यह कि कामवासना से कहता है । गुप्त अर्थ-सीताजी को अपनी इष्ट देवी मानता है, इस- लिये कहता है कि अब मेरी ओर कृपा की दृष्टि से देख कर मुझे मुक्त करो। जैसा कि सीता- हरण के समय "मन महं चरन बन्दि सुख माना" कहा है । यहाँ तिनके को आड़ लेने में हेतु • यह है कि पतिव्रता स्त्री पराये पुरुष, से विना परदे के नहीं बोलती। पर वहाँ परदा कहाँ था इसलिये तृण हाथ में लेकर उसे ही श्रोट की वस्तु मान लिया 1.अथवा हाथ में तिनका लेकर यह सूचित करती है कि तेरी ओर देखना कैसा! मैं स्वामी के वियोग में अपना प्राण तृण के समान त्याग दूंगी। अथवा तुण लेकर यह सूचित करती है कि तू रामचन्द्रजी के आगे तिनके की तरह तुच्छ है । अथवा तुझको मैं तृण के बराबर समझती हूँ इत्यादि । वाल्मीकीय रामायण के टीकाकारों ने इस स्थल पर सैकड़ों प्रकार की ध्वनियों के तर्क किये हैं। सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा । कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा । अस मन समुा कहति जानकी । खल सुधि नहिँ रघुबीर बान की ॥४॥ हे वशानन ! सुन,क्या कभी जुगुन की चमक से कमलिनी खिलती है ? (कभी नहीं)। 1