पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रामचरित-मानस । जानकीजी कहती है कि तू अपने मन में ऐसा ही समझ । अरे टुट ! तुझ को रघुवीर के बाणों की सुध नहीं है ? nan रामचन्द्रजी और सूर्य, जानकीजी और कमलिनी, रावण और खद्योत परस्पर उप- मेय उपमान है । जानकीजी का कहना तो यह है कि मैं तुझ पर दृष्टि न डालूँगी, इस प्रस्तुत वृत्तान्त को कमलिनी पर ढार कर अप्रस्तुत वर्णन द्वारा प्रकट करना 'सामप्य निवन्धना अप्र. स्तुत प्रशंसा वा अन्योक्ति अलंकार' है। क्या कभी जुगुन फी चमक से कमलिनी खिलती है ? इस वाक्य में काकु से विपरीत अर्थ भासित होना कि नहीं खिलती 'वक्रोक्ति अलंकार' है। रावण का सीताजी विषयक रति भाव एकाझी होने से शृङ्गार रसाभास' है। वह सीताजी के कोप रूप भाव के अङ्ग से भाया 'ऊर्जस्त्रित अलंकार' है। इस प्रकार यहाँ अलंकारों की संसृष्टि है "रघुवीर के बाणों की सुध नहीं है ?" इसके सम्बन्ध में कई प्रकार की यातें कही जाती हैं। (१) लक्ष्मणजी ने बाणों की रेखा खींच दी थी, वह तुझ से लाँधी नहीं गई' फिर तू क्या बढ़ कर बातें करता है । (२) रघु के वीर पुत्र अज के वाण के भय, सेत् लका में स्त्रियों के बीच छिप रहा था, तब तेरे प्राण बचे । (३) रामचन्द्रजी की बान (स्वभाव) जो दासों के साथ अपराध करने से अपराधी को कदापि क्षमा नहीं करते अर्थात् भकद्रोही का शीघ्र ही सर्वनाश करते हैं, तुझे इसका स्मरण नहीं है ? इत्यादि । सठ सूने हरि आनेहि मोही । अधर्म निलज्ज लाज नहिँ तोही ॥५॥ नीच निर्लज्ज ! तुझे लज्जा नहीं है ? मुझे सूने में हर ले आया (मय घर ला) कर निलज्जता भरी बाते बफता है ? ॥५॥ दो-आपुहि सुनि खद्योत सम, रोमहि भानु समान । परुष बचन सुनि काढि असि, बोला अति खिसियान ॥६॥ अपने को जुगनू के बराबर और रामचन्द्रजी को सूर्य के समान सुन कर एवम् पूर्व कथित कठोर वचनों को सुन रावण बहुत ही खिलिया गया और म्यान से तलवार खींच कर बोला non कठोर वचन कारण और क्रोधित होकर तलवार खीचनो काय, दोनों का साथ ही वर्णन 'हेतु अलंकार' है। चौ०-सीता तैं मन कृत अपमाना। कटिहउँ तवसिर कठिन कृपाना॥ नाहिँ त सपदि मानु मम बानी । सुमुखि हात न त जीवन हानी ॥१॥ हे सीता तू ने मेरा अपमान किया, इसलिये मैं विकराल तलवार से तेरा सिर काट डालूँगा। नहीं तो तुरन्त मेरी बात मान ले, हे सुमुखी ! अन्यथा तेरे जीवन का नाश होगा (क्यों व्यर्थ हो प्राण गँवाती है।)॥१॥ स्याम-सरोज-दाम सम सुन्दर । प्रभु शुज. करि कर सम दसकन्धर ॥ साभुज कंठ कि तव अति घोरा। सुनु सठ अंस प्रमान पन मारा ॥२॥ सीताजी ने कहा-हे दसकन्धर ! श्यामकमल की माला के समान सुन्दर और हाथी के सूंड़ के बराबर (उतार चढ़ाव ) जो स्वामी की भुजाएँ हैं। या तो वे मेरे गले में लगगी या कि तेरी भीषण तलवार ! अरे दुष्ट ! सुन, मेरी ऐसी निश्चित प्रतिज्ञा है ॥ २॥ अरे दुष्ट,