पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८६८

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- १५ 1 1 पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । गुटका में 'सुनु सट अस मवान मन मोरा' पाठ है। उसका अर्थ होगा अरे दुष्ट ! सुन, मेरे मन का ऐसा ही निश्चय है। चन्द्रहोस हर मम परितापं । रघुपति-बिरह-अनल सज्जातं । सीतल निसि तव असि बर धारा । कह सीता हरु मम दुख भारा ॥३॥ हे चन्द्रहास रघुनाथजी की विरहाग्नि से उत्पन मेरे ताप को तू हर ले । सीताजी कहती हैं कि हे तलवार ! तेरी श्रेष्ट धार शीतला (चाँदनी) रात के समान है, तू मेरे इस भारी दुःख को हर ले ॥३॥ कहना तो रावण से है, परन्तु उस से न कह कर तलवार से निवेदन करना जिस में यह जान लेवे 'गूढोकि अलंकार' है। यह बात चन्द्रहास पर वार कर रावण से कही गई है जो उसको हाथ में लिये है, किन्तु मारता नहीं है । जानकीजी का प्रस्तुत कथन रावण से है और तलवार का वृत्तान्त अप्रस्तुत 'सारूप्यनिबन्धना अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार' है। एक प्राचीन प्रति में 'सीतल निसित बहसि बर धारा, पाठ है। उसका अर्थ होगा-"शीतल चोखी श्रेष्ठ धारा बहती (चलती) है"। सुनत बचन पुनि मारन धावा । मय-तनया कहि नीति बुझावा ॥ कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई । सीतहि बहु बिधि त्रासह जाई un फिर पचन सुनते ही मारने दौड़ा, तब मन्दोदरी ने नीति कह कर समझाया कि स्त्रा अवध्य है। रावण ने सम्पूर्ण राक्षसियों को बुला कर कहा कि तुम सब जाकर सीता को बहुत तरह से डरानो 1 मास-दिवस महै. कहा न माना । तो मैं मारब काढ़ि कृपानी ॥ महीने भर में कहना न माना तो मैं तलवार खीच कर इसे मार डालूगा ॥५॥ दो-भवन ‘गयउं दसकन्धर, इहाँ पिसाचिनि बन्द । सीतहि त्रास देखावहि, धरहि रूप बहु मन्द ॥१०॥ यह कह कर रावण राजमहल में गया, यहाँ झुण्ड को झुण्ड पिशाचिनी राक्षलियाँ बहुत खोरा रूप धारण करके सीताजी को भय दिखाती हैं ॥१०॥ धौ-त्रिजटा नाम राक्षसी एका । राम चरन रति निपुन विधेका ॥ सबन्हाँ बालि सुनायेसि सपना । सीतहि सेइ करहु हित अपना ॥१॥ एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी. वह रामचन्द्रजी के चरणों की प्रीति में प्रवीण और समझदार थी। उसने सभी राक्षसियों को बुला कर अपना स्वप्न सुनाया और कहा कि तुम सब सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण करो ॥१॥ सपने बानर लङ्का जारी । जातुधान खर आरूढ़ नगन दससीसा । मुंडित सिर खंडित भुज बीसा ॥२॥ (आज स्वप्नमें) बन्दर ने लङ्का जलाई और सब राक्षसों की सेना को संहार कर डाला। सेना सब मारी॥