पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८६९

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७९६ रामचरितमानस रावण ना हो कर गधे पर सवार है, उसका सिर मुंड़ा हुआ और बीस भुजाएँ कटी हुई हैं ॥२॥ 1 एहि बिधि सो दच्छिंन दिसि जाई। लङ्का मनहुँ बिभीषन पाई। नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बालि पठाई ॥३॥ इस तरह वह दक्षिण दिशा को जा रहा है, ऐसा मालूम होता है मानों लङ्का का राज्य विभीषण को मिला हो। नगर में रघुनाथजी की दुहाई फिर गई है, तब प्रभु रामचन्द्रजी ने सीताजी को बुलवा भेजा है ॥३॥ यह सपना मैं कहऊँ पुकारी । होइहि सत्य गये दिन चारी। तासु बचन सुनि ते खन्न डरौं । जनक-सुता के चरनन्हि परी ॥en मैं पुकार कर कहती हैं कि यह सपना चार दिन के बाद ही सत्य होगा। उसकी बात सुन कर वे सब राक्षसियाँ डर गई और जानकीजी के पाचों पड़ीं ॥४॥ बिजटा को अभीष्ट तो है सीताजी की रक्षा करना और राक्षसियों को हटा देना जिस में हनूमानजी को बातचीत का अवसर मिले । परन्तु इस बात को सीधे न कह स्वाम द्वारा रावण का विनाश काठ राक्षसियों को भयभीत करके कार्य साधन करना 'पर्यायाकि अलंकार' है। 'गये दिन चारी में ऐसी लोक में कहावत प्रसिद्ध है कि देख लेना यह बात चार दिन में सच्ची होगी, पर इसे साई ठीक ठीक चार दिन की संख्या नहीं मान लेता । यही विजटा ने कहा है, लोग यहाँ शङ्का करते हैं कि त्रिजटा की कही हुई यात अधिकांश सवेरा होते ही सत्य हुई और शेष महीनों के अन्तर से लच्ची हुई, तब चार दिन का कथन यथार्थ नहीं है। इसी बात को लेकर तरह वरह के अर्थ गढ़े जाते हैं । जैसे-गये दिन चारी-सूर्यो- दय होने पर यह होगा । अथवा गये दिन अर्थात् पनिचारी कह कर त्रिजटा ने राक्षसियों का सम्बोधन किया है। अथवा दिन चारी-बन्दर के जाने पर। अथवा दिनचारी राम-लक्ष्मण के लङ्का में आने पर इत्यादि। यह सब तर्फनाएँ निर्मूल हैं। दो-जह तह गई सकल मिलि, सीता कर मन सोच । मास दिवस बीते मोहि, मारिहि निसिचर पाँच ॥११॥ वे समस्त राक्षसियाँ मिल कर जहाँ तहाँ चली गई और सीताजी मन में सोच करने लगी कि महीने के दिन बीतने पर नीच राक्षस मुझे मार डालेगा ॥११॥ चौ-निजटा सन बाली करजोरी। मातु बिपति सङ्गिनि नैं मारी ॥ तजउँ देह करु बेगि उपाई । दुसह बिरह अब नहिं सहि जाई ।।। तब सीताजी-त्रिजटा से हाथ जोड़ कर बोली, हे माता! तू मेरी विपत्ति को साथिन है। ऐसा उपाय कर दे जिसने मैं जल्दी शरीर त्याग द्, अब यह असहनीय वियोग नहीं सहा जाता है। 1