पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८७०

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । ७६७ आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई। सत्य करहि मम प्रीति सयानी । सुनइ को स्त्रवन सूल सम बानी ॥२॥ हे माता! तू लकड़ी ला कर चिंता बना दे, फिर उसमें आग लगा दे । हे सयानी ! मेरे प्रति अपने प्रेम को सच करे, यह शूल के समान वचन कानों से कौन सुने ? सुनत बच्चन पद गहि समुझायेसि । प्रभु प्रताप-बल-सुजस सुनायेसि । निसिन अनल मिलु सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥३॥ सीताजी की बातें सुन कर विजय ने उनके पाँव पकड़ कर समझाया, प्रभु रामचन्द्रजी का प्रताप बल और सुन्दर यश सुनाया। उसने कहा-हे सुकुमारी ! सुनिये, रात में भाग न मिलेगी, ऐसा कह कर वह अपने घर चला गई ॥३॥ प्रताप यह कि रधुशागजी ने आप ही के लिये जयन्त पर सॉक का बाण छोड़ा, वह चौवहाँ लोकों में. भागता फिरा पर कहीं रक्षा नहीं हुई। बल'"आप ही के हेतु कठिन शिव-चाप को तोड़ा और खर-दूषण आदि चौदह हज़ार राक्षसों को अकेले वध किया। सुयश-एक नारी.बत और पिता वचन पालन में अनुरक्त, सत्य सङ्कल्प हैं। वे आप के दुःख को दूर करेंगे, खबर पाते ही यहाँ आयेंगे घबराइये नहीं । रात में भाग न मिलने का बहाना कर तुरन्त घर इसलिये चल दिया कि जब तक मैं यहाँ रहूँगी तब तक हनुमानजी . प्रगट न होंगे। कह सीता बिधि मा प्रतिकूलां । मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला ॥ देखियत प्रगट गगन अङ्गारा । अवनि न आवत एकउ तारा uen. सीताजी कहती हैं कि मुझ पर विधाता ही प्रतिकूल हुआ है, (तभी तो त्रिजटा ने मेरी वात अनसुनी कर दी)न आग मिलेगी और न यह वेदना मिटेगी। आकाश में प्रत्यक्ष प्रकारे दिखाई पड़ते हैं। किन्तु वे एक भी तारे ज़मीन पर नहीं आते हैं ॥४॥ प्रहार'उपमान और तारागण-उपमेय हैं । उपमान ' के गुण उपमेय में स्थापन करना 'द्वितीय निदर्शना अलंकार है पावकमय ससि सवत न आगी । मानहुँ माहि जानि हतभागी । सुनहि बिनय मम पिटप असोका । सत्य नाम करु हरु मम सोका ॥५॥ चन्द्रमा अग्नि के रूप ही हैं पर वे भाग नहीं गिराते हैं, ऐसा मालूम होता है मानों मुझे अभागिन समझ कर ऐसा नहीं करते हैं। हे अशोक वृक्ष ! मेरी प्रार्थना सुन ले, अपनो नाम सत्य करके मेरे शोक को हर ले ॥५॥ चन्द्रमा अग्नि नहीं है, न भाग बरसाता है और न वियोगिन को प्रभागिन तमझता है। यह अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। शोक नष्ट करने का अभिप्राय अशोक शब्द में वर्तमान रहने से परिकराङ्कर अलंकार दोनों की संसृष्टिहै। + 1