पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८७२

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । कान और मन लगा कर सुनने सागी, आदि ही से सब कथा (पिता की आशा से बन में आना, चित्रकूट निवास, खरदूषणवध, सीता हरण आदि) कह सुनाई ॥३॥ रामचन्द्रजी कागुण वर्णन कारण और सीताजी का दुरा सुनते ही भाग जाना काय 'चपलातिशयोक्ति अलंकार' है। सीताजी रामचन्द्रजी का सन्देशा सुनना चाहती थी, वही बात हनुमानजी बिना किसी आग्रह. के कह चले। इस चितचाही बात का होना 'प्रथम प्रहर्षण अलंकार दोनों की संसृष्टि है। खवनामृत जेहि कथा सुनाई । कहिं सो प्रगट होत किन माई ॥ तब हनुमन्त निकट चलि गयऊ । फिरि बैठो मन बिसमय भयऊ neu सीताजी ने कहा-भाई ! जिसने कानों को अमृत के समान कथा कह कर सुनाई है,वह प्रकट पयों नहीं होता? तब हनूमानजी समीप बले गये, उन्हें देख मन में खेद हुआ, इस से मुँह फेर कर बैठ गई ॥४॥ सीताजी के मन में छुली रावण की करतूत का सन्देह हुआ,उन्होंने अनिष्ट प्राप्ति की शङ्का से मुंह दूसरी शोर फेर लिया, 'विषाद सचारीभाध' है। राम-दूत मैं मातु जानकी । सत्य सपथ करुनानिधान को ॥ यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दोन्हि राम तुम्ह. कह सहिदानी ॥२॥ हनूमानी ने कहा-हे माता जानकी ! मैं करुणानिधान रामचन्द्रजी की सौगन्द खाकर कहता हूँ, मैं सचमुच उन्हीं का भेजा हुआ दूत हूँ। हे मातो! इस मुद्रिका को मैं ही ले भाया हूँ. भाप को (प्रतीति होने के लिये) रामचन्द्रजी ने यह पहचान को चीज़ दी है (मैं कपटी रावण नहीं है आपका सेवक हूँ, मुझ पर विश्वास कीजिये) ॥५॥ नर बानरहि सङ्ग कहु कैसे । कही कथा भइ सङ्गति जैसे ॥६॥ सीताजी ने पूछा--कही, मनुष्य और वानर का सग कैले हुना? तब हनूमानजी ने यह सक कथा जिस तरह साथ हुआ था कह सुनाई ॥६॥ हनुमानजी का गूढ़ अभिप्राय सीताजी के मन में अपने प्रति विश्वास उत्पच कराने का है। उनके पूछने पर उत्तर देना प्रश्न युक्त गढ़ोतर झालंकार है। दो--कृषि के बचन सप्रेम सुनि, उपजा मन विस्वास । जाना मन क्रम बचन यह, कृपासिन्धु कर दास ॥१३॥ हनूमानजी के प्रेम-युक्त वचन सुन कर जानकीजी के मन में विश्वास उत्पन्न हुआ। उन्होंने समझ लिया कि यह मन, कर्म और. वचन ले कृपासिन्धु रघुनाथनी का सेवक है ॥१३॥ चौ-हरिजन जांनि प्रीति अति बाढ़ी। सजल नयन पुलकावलि बढ़ी। बूड़त बिरह जलधि हनुमाना । भयेउ तात मा कह जलजाना ॥१॥ . हनूमानजी को रामभक्त समझ कर सीताजी के हृदय में बड़ी प्रीति बढ़ी, आँखों में जल भर आया और शरीर पुलकित होकर रोमांवलियाँ खड़ी हो गई। उन्हों ने कहा "हे हनूमान पुत्र ! विरह रूपी समुद्र में इंबते हुए मुझे तुम जहाज रूप होकर मिले हो ॥१॥