पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८७५

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८०२ रामचरित मानस । "२२ चौध...जी रघुबीर होति सुधि पाई । करते नहिं बिलम्ब रघुराई । साल बान रबि उसे जानकी । तम बरूथ कह जातुधान की ॥१॥ यदि रघुनाथजी भाप को अवर पाये होते तो वे रघु-कुल के राजा हैं, देरी न करते । हे जानकीमाता! राक्षसों के समुदाय रूपो अन्धकार के लिये रामचन्द्रजी के वाण रूपो. सूर्य उदय हो चुके है (तभी तो औरण्यवन में चौदह हज़ार प्रेतों का संहार शुश्रा) ॥१॥ 'रघुराई' शब्द में लक्षणांमूलक अगूढ व्यक्त है कि रघुकुल के राजा धर्मात्मा, सत्य सङ्कल्प, परोपकारी, साहसी, शूरवीर और दीन दुःसाहारी होते आये हैं। रामचन्द्रजी उन गुणों में अद्वितीय हैं । खवर पाये होते तो श्रापंको रक्षा करने में देरी न करते। अबहि मातु मैं जाउँ लेवाई। प्रभु आयस नहिं राम-दोहाई ॥ कछुक दिवस जननी धरू धीरा । कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा ॥२॥ हे माता ! मैं सभी भोप को लिवा ले चालता, पर स्वामी क्षी अाशा नहीं है। इस बात को मैं रामचन्द्रजी की सौगन्द खा कर कहता हूँ । हे भाता। छ दिन धीरज धारण कीजिये, घानरों के सहित रघुनाथजी यहाँ प्राधेगे।२।। निसिचर मारितोहि लेइ जइहहिँ । तिहुँ पुर नारदादि जस गइहहिं । हैं सुत कपि सब तुम्हहिं समाना । जातुधान अट अति बलवाना ॥३॥ राक्षसों को मार कर आप को ले जायगे और इस यश को तीनों लोकों में नारद आदि महर्पि-गण गावेगे । इस प्रकार वायुनन्दन की पात को सुन कर सीताजी ने कहा-हे पुत्र ! क्या सब बन्द तुम्हारे ही समान है ? यहाँ राक्षस बड़े बलवान योद्धा हैं ॥३॥ हनुमानजी के छोटे रूप को देख कर और सवालों की शुरता का अनुमान करके सीताजी के मन में सन्देह हुआ कि लघु बन्दर राक्षस वीरों को कैसे जीत सकेंगे? 'शङ्का सञ्चारी भाव है। मोरे हृदय परम सन्देहा । सुनि कपि प्रगट कोन्हि निज देहा। कनक-भूधराकार सरीरा । समर-अयङ्कर अति बल-बीरा ॥४॥ मेरे मन में बहुत बड़ा सन्देह है, यह सुन कर हनूमान जी ने अपना रूप प्रकट किया। उनका सुमेरु पर्वत के आकार का शरीर, युद्ध में महायली वीरों को भी भय उत्पन करनेवाला है। सीता मन भरोस तब अयऊ । पुनि लघु रूप पवन-सुत लयऊ ॥३॥ तय सीताजी के मन में भरोसा श्रा, फिर पवन कुमार ने छोटा रूप कर लिया ॥५॥ दो०-सुनु माता साखामृग, नहिँ बल-बुद्धि बिसाल । .. प्रभुप्रताप तैं गरुड़हि, खाइ परम लघु ब्याल ॥१६॥ हनुमानजी ने कहा-हे माता! अभिये, इन्दर न तो बली है और न विशाल बुद्धिवाले हैं । स्वामी रामचन्द्रजी के प्रताप से अत्यन्त छोटा साँप भी गरुड़ को खा सकता है।॥१६॥ . .