पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८७६

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । ५०३ हनूमानजी ने वानरों की बुद्धि और बल का इसलिये निषेध किया कि वह धर्म 'प्रभु प्रताप में स्थापन करना अभीष्ट है। यह 'पर्यस्तापति अलंकार' है। चौ०-मन सन्तोष सुनत कपि बानी। भगति-प्रताप-तेज-बल-सानी ॥ आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना । होहु तात बल-सील-निधाना॥१॥ भक्ति, प्रताप, तेज और वल से सनी हुई हनूमानजी की वाणी सुनते ही सीताजी के मन में सन्तोष हुभा । रामचन्द्रजी का प्रेमी जान कर आशीर्वाद दिया कि-हे पुत्र! तुम बल और शुद्धावरण के स्थान हो ॥१॥ इनूमानजी की वाणी को भक्ति, प्रताप, तेज और वा से मिली हुई कहा, इसका प्रमाण पूर्वकथित दोहा चौपाइयों में विद्यमान है। यथा भक्ति-सुमिह राम सेवक-सुख-दाता। प्रताप-प्रभु प्रताप ते गरहि, खाह परम लघु व्याल । वेज-म बान रवि उये जागझी। यल-उर आनहु रघुपति प्रभुताई धो निसियर मारि तोहि लेइ जहाहि । अजर अमर गुन-निधि सुत हाहू । करहिं बहुत रघुनायक छाहू ॥ करहिं कृपा प्रभु अस सुलि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना ॥२॥ बुढ़ाई रहित, चिरजीवी और गुणों के समुद्र हो, हे पुत्र ! तुम पर रघनाथजो बहुत कृपा करें । प्रभु रामचन्द्रजी दया करें, ऐसा कान से सुन कर हनूमान जी भरपूर प्रेम में मग्न हो गुटका में दोनों जगह 'कर' पाठ है। बार बार नायेसि पद सीसा । बोला धन जारि कर कोला । अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता ! आसिष तव अमोघ बिख्याता ॥३॥ बारम्बार चरणों में सिर नया कर और हाथ जोड़ कर हनूमानजी वचन बोले । हे माता ! अब मैं कृतार्थ (सफल-मनोरथ) हो गया, आप का आशीर्वाद निकला न होनेवाला प्रसिद्ध है (वह मुझे प्राप्त हुआ ) ॥३॥ सुनहु भातु मोहि अतिसयं भूखा । लागि देखि सुन्दर फल रूखा ॥ सुनु सुत करहिँ विपिन रखवारी । परम सुभट रजनीचर भारी ॥४॥ हे माता! सुनिये. इन वृक्षों में सुन्दर फल लगे देख कर मुझे बड़ी भूख लग आई है। • सीताजी ने कहा-हे पुत्र ! सुनो, इस बगोचे की रखवाली बड़े बड़े भारी योयो राक्षस करते हैं (ऐसी दशा में तुम कैसे फल खा सकोगे ) ॥४॥ सुन्दर फलो का देखना कारण और भूख का लगना कार्य, कारण के समान कार्य को वर्णन 'द्विवीय सम अलंकार' है। तिन्ह कर भय माता माहि नाही । जौँ तुम्ह सुख मानहु मन माहीं ॥५॥ हनूमानजी ने कहा-हे माताजी ! मुझे उन राक्षसा का डर नहीं है, यदि आप मन में सुख माने (प्रसन्न होकर माना )।५॥ गये॥२॥