पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८७९

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रामचरित मानस । वन्धन को काटते हैं। उनका दूत क्या बन्धन के नीचे श्रा सकता है ? (कदापि नहीं)।स्वामी के कार्य के लिये हनूमान ने स्वयम् अपने को बँधुश्रा बनाया ॥२॥ कपि-बन्धन सुनि लिलिचर घायै । लातुक लागि सभा सब आये ॥ दसमुख-समा दीखि कपि जाई । कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥३॥ बन्दर का बाँधा जाना सुन कर राक्षस दौड़े और तमाशा देखने के लिये सब दरबार में प्राये । हनूमानजी ने जा कर रावण की कचहरी देखी, उस की बहुत बड़ी महिमा कही नहीं जाती है ॥३॥ कर जोरे सुरु दिलिप विनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभोता ॥ देखि प्रताप न कपि मन सङ्का । जिमि अहि-गन लहँ गरुड़ असङ्का॥४॥ देवता और दिगपाल सइ नम्रता से भयभीत हाथ जोड़े हुए सौंह का रुख देखते हैं। यह प्रताप देख कर भी हनमानजी के मन में शङ्का नहीं हुई, वे ऐसे निर्भय हैं जैसे साँपों के झुण्ड में गाड़ निर्भय रहते हैं | दो-कपिहि बिलोकि दसानन, विहँसा कहि दुर्बाद । सुत-बध-सुरति कीन्ह पुनि, उपजा हृदय बिषाद ॥२०॥ हनुमानजी को देख दुर्वचन कह कर रावण हँसा, फिर पुत्र के मारे जाने की याद करके उस के मन में विषाद उत्पन्न हुश्रा |२०|| वानर को बँधुवा हुआ देख कर प्रसन्नता और पुत्र वध के स्मरण से दुःख, दोनों भावे का एक पथ हृदय में उत्पन्न होना प्रथम समुच्चय अलंकार है। चौ--कह लङ्केल भवन से कोसा । केहि के बल धालेहि बन खीसा ।। कीधौं सवन सुने नहिं माही । देखउँ अति अलङ्क सठ ताही ॥१॥ रावण ने कहा-अरे बन्दर! तू कौन है ? फिल के वल से मेरे बगीचे को नष्ट कर डाला १ अथवा तू ने मुझे कान ले सुना नहीं ? अरे दुष्ट ! तुझको मैं बड़ा निडर देखता सारे निस्चिर केहि अपराधा । कहु सठ ताहि न प्रान कै बाधा ॥ सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति मायो ॥२॥ तू ने राक्षसों को किस अपराध से मारा ? अरे मूर्ख ! कह तो सही, क्या तुझे अपने प्राणों की पीणा नहीं है ? यह सुन कर हनूमानजी बोले-हे रावण ! सुन, जिनका बल पाकर माया अनेक ब्रह्माण्डों की रचना करती है | रावण ने हनुमानजी से पाँच प्रश्न किया । (१) तू कौन है ? (२) किसके बल से बगीचा नसाया ? (३) मुझे कान से नहीं सुना तुझे मैं बड़ा निडर देखता हूँ। (७) रावासों को किस अपराध ले मारा? (५) क्या तुझे अपने प्राणों का भय नहीं है ? इसका उत्तर इनः