पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८८

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प्रथम सोपोन, बालकाण्ड । नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग-प्रिय-हरि हरि-हर-प्रिय आपू॥ नाम जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू । भगत-सिरोमनि - मे प्रहलादू ॥२॥ नाम के महत्व को नारदजी ने जाना, जिससे जगत के प्यारे विष्णु और शिवजी को श्राप प्रिय हुए । नाम के जपने से प्रभु रामचन्द्रजी प्रसाद पर प्रसन्न हुए और वे भक्तों के शिरोभू- षण हो गये ॥२॥ नारद का संक्षिप्त वृत्तान्त इसी काण्ड में दूसरे दोहे के आगे प्रथम चौपाई के नीचे देखो। प्रहादजी अपने पिता हिरण्यकशिपु के बार बार मना करने पर राम-नाम के स्मरण से विरत नहीं हुए ! उसने तरह तरह के दण्ड दिये, किन्तु उन्हें किसी प्रकार का उससे कष्ट नहीं पहुँचा । अन्त को वह प्रह्लाद को पत्थर के खम्भे से बाँध तलवार लेकर मारने को उद्यत हुआ। उस समय भगवान सिंह रूप धारण कर स्वम्भे से निकल पड़े। दैत्य का बध कर प्रहाद की उन्होंने रक्षा की और उन्हें परमपद दिया। प्रह्लाद की कथा इसी काण्ड में 9 दोहा के आगे प्रथम चौपाई के नीचे देखो। ध्रुव सगलानि जपेउ हरि-नाऊँ । पायउ अचल अनूपम ठाऊँ। सुमिरि पवन-सुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ॥३॥ ध्रुव ने ग्लानि-पूर्वक भगवान् के नाम को जपा, जिसले अविचल और अनुपम स्थान पाया। पवनकुमार ने पवित्र नाम स्मरण कर रामचन्द्र जी को अपने वश में कर रक्खा है ॥३॥ राजा उत्तानपाद के दो रानियाँ थीं । बड़ी रानी से ध्रुव और छोटी से उत्तम नाम के एक एक पुत्र हुए । राजा छोटी रानी को अधिक चाहते थे। एक दिन छोटी रानी के मन्दिर में बैठे कुमार को प्यार कर रहे थे, ध्रुव भी जा कर राजा की गोदी मैं बैठ गये। छोटी रानी ने झिड़क कर डाह से उन्हें गोद से अलग कर दिया। राजा कुछ न बोले । ध्रुव को ग्लानि हुई । पाँच ही वर्ष की अवस्था में घर त्याग वन को गये । नारदजी के उपदेशानुसार नाम स्मरण किया, उनकी तपस्या से प्रसन्न हो भगवान ने दर्शन दे उन्हें अटल स्थान का निवास दिया। हनूमा. नजी की कथा सुन्दर काण्ड में ३० से ३२ वे दोहे पर्यन्त देखो। अपत अजामिल गज गनिकाऊ । भये मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ॥ कहउँ कहाँ लगि नाम बड़ाई । राम न सकहिं नाम-गुन गाई ॥४॥ निर्लज्ज (पापी) अजामिल, हाथी और वेश्या भी भगवान के नाम की महिमा से संसार- बन्धन से मुक्त हुए । नाम की घड़ाई कहाँ तक कहूँ, रामचन्द्रजी भी.नाम के गुणों का गान नहीं कर सकते ॥४॥ पहले विशेष बात कही गई कि नाम के प्रभाव से नीच अजामिल, गज, गणिका मुक्त हुए। फिर नाम की बड़ाई कहाँ तक कहू, इस सामान्य बात से उसकी पुष्टि है, परन्तु इतने से भी सन्तुष्ट न होकर फिर विशेष सिद्धान्त ले उसका समर्थन करना कि नाम की घड़ाई रामचन्द्र भी नहीं कह सकते 'विकस्वर अलंकार है। चौपाई के उत्तगर्द्ध में रामचन्द्रयों को कथन के अयोग्य ठहरा कर नाम की भतिशय बड़ाई करना 'सम्वन्धातिशयोक्ति अलंकार' है।