पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८८५

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रामचरित मानस। हनूमानजी लङ्का को जलाना हो चाहते थे, परन्तु मन मै सन्देह हुआ कि कहीं मेरा यह कार्य स्वामी की इच्छा के विरुद्ध न हो । इतने ही में अकस्मात् उनवास पवन के चलने से कार्य में सुगमता का होना, जिससे हरि श्राशा का अनुमान हुआ'समाधि अलंकार' है। चौ०-देह मिसाल परम हरुआई। मन्दिर ते मन्दिर चढ़ धाई ॥ जरइ नगर मा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला ॥१॥ शरीर तो बहुत बड़ा है पर अत्यन्त हलका है, एक मकान से दूसरे घर पर चढ़ जाते हैं (उनकी छत भार से टूटती नहीं)। नगर जलने लगा लोग वेचैन हो गये, बड़ी विकराल समूह लपटों की झपट बढ़ रही हैं ॥१॥ तात मात हा सुनिय पुकारा । एहि अवसर को हमहिँ उबारा ॥ हम जो कहा यह कपि नहिं होई । भानर रूप धरे सुर कोई ॥२॥ हाय वाप और हाय मा की चिल्लाहट सुनाई पड़ती है, लोग कहते हैं-इस समय हमें कौन बचावेगा। हमने जो कहा था कि यह चन्दर नहीं है, कोई देवता धानर का रूप धरे है (ठीक वही हुआ) ॥२॥ सत्य वानरत्व को असत्य ठहरा कर, असत्य उपभान देवता को बन्दर ठहराना 'शुद्धाप- ति अलंकार है। साधु अवज्ञा कर फल ऐसा । जरइ नगर अनाथ कर जैसा ।। जारा नगर निमिष एक माहौँ । एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥३॥ सज्जनों के अनादर का फल ऐसा ही होता है कि लङ्का अनाथ की नगरी जैसी जल रही है। इनूमानजी ने एक पल भर में नगर जला दिया; किन्तु एक विभीषण का घर नहीं जलाया (उसको बचा दिया) ॥३॥ साधु के तिरस्कार का ऐसा ही फस्त मिलता है, इस साधारण बात का समर्थन यह कह कर करना कि तभी लङ्का जैसो दुर्गम नगरी अनाथ के गाँव की तरह जलती है 'अर्था- न्तरल्यास अलंकार' है । यहाँ पार्वतीजी ने प्रश्न किया कि-स्वामिन् ! हनूमान की पूंछ में आग लगाई गई और जलती हुई अग्नि में दौड़ धूप करते रहे; पर वे नहीं जले, इसका क्या कारण है। ता कर दूत अनले जेहि सिरजा। जरा न.सो तेहि कारन गिरजा ।। उलटि पलटि लङ्का सब जारी । कूदि परा पुनि सिन्धु मँझारी ॥४॥ शिवजी कहते हैं- हे उमा! हनूमान उनका दूत है जिन्हा ने अग्नि को उत्पन्न किया है, इसी कारण वह नहीं जला। घूम फिर कर (चारों ओर से ) सारी लङ्का जलाई; फिर समुद्र में कूद पड़ा en हनूमानजी के न जलने के कारण को शिवजी ने हेतुसूचक बात कह कर पुष्ट किया 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। कुछ टीकाकारों ने 'दूत' के स्थान में 'भक' पाठबदल कर