पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८८६

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६१ पञ्चम सापान सुन्दरकाण्ड । यरल कर इस प्रकार अर्थ किया है कि "विभीषण उनका भक है जिन्हों ने अग्नि को पैदा किया है, इसी से उसका घर नहीं जला" । ऊपर तीसरी चौपाई में कहा गया है कि हनुमान जी ने पल भर में सारी लंका जलाई, पर एक विमीपण का घर नहाँ जलाया, उसको पचा दिया। जब जलानेवाले ने स्वयम् विभीषण का घर नहीं जलाया, जान बूझ कर उसे बचाया तप पार्वतीजी को इस में सन्देह करने का कोई कारण नहीं है। हनूमानजी के साथ में विभीषण ने जो उपकार किया था उसको पावतोजी सुन चुकी हैं, प्रत्युपकार करना इनूमानजी का धर्म है। अत: यहाँ शङ्का करने की कोई बात नहीं है। अध्यात्म रामायण में शिवजी ने कहा है कि..."यनामसंस्मरणधूत समस्तपापा स्तापत्रयानलमपीह तरन्तिसधः । तस्यैव कि रघुवरस्य विशिष्टदूतः संतप्यते कथमसौ प्रवतानलेन । अर्थात् जिनका नाम स्मरण करनेसे सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं और प्राणी तीनों तापोंसे तुरन्त पार पा जाते हैं। उन्ही रामचन्द्रजी का हनूमान प्यारा दूत है, फिर वह साधारण अग्नि में कैसे जल सकता है ! वाल्मीकीय रामायण सुन्दरकाण्ड सर्ग ५४ में २८ श्लोक से लेकर ३३ चे श्लोक पर्यन्त पूंछ में अग्नि प्रज्वलित होने पर हनूगांनजी ने स्वयम् तर्क वितर्क किया है कि अग्नि इतने वैग से जलती है किन्तु वह मुझे नहीं जलाती है इसका क्या कारण है ? यद्यपि भयङ्कर ज्वाला देख पड़ती है तो भी पंछ में ठण्डक प्रतीत होती है। जय रामचन्द्र जी की कृपा से आती र समुद्र में मैंनाक पर्वत विश्राम देने को सामने आया, तब क्या अग्निदेव कुछ भी अनुग्रह न करेंगे। अग्नि मेरे पिता के मित्र हैं, रामचन्द्रजी के प्रताप और सीताजी के अनिन्दित्व के प्रभाव से वे मुझे नहीं जलाते हैं । इस श्रावश्यक प्रश्न को भला गोस्वामीजी कप छोड़नेवाले थे, उन्हों ने एक ही चौपाई में कह दिया। पं० बालाप्रसाद की टीका के भक एक रामायणी ने विभीषण के घर के सम्बन्ध में बड़ा जोर दिया। इस कारण यहाँ इतने विस्तार की आवश्यकता हुई । इसका निर्णय कथा प्रेमी पाठकों के विचार पर निर्भर है। 'उलटि-पलटर शब्दों के शब्दार्थ को छोड़ कर लोग शनि आदि की बाहरी कथा घुसेड़ कर पाण्डित्य प्रदर्शित करते हैं । उलटना पीछे मुड़ना और पलटना-लौटना का बोधक है। इसका मुख्यार्थ हुना 'घूम फिर फर'। दो०-पॅछि बुझाइ खोइ खम, धरि लघुरूप बहोरि । जनक-सुता के आगे, ठाढ़ भयउ कर जारि ॥२६॥ पूँछ वुझा कर और थकावट मिटा कर फिर छोटा रूप धारण कर के जानकीजी के सामने हाथ जोड़ कर खड़े हुये ॥२६॥ चौ०-मातु मोहि दीजै कछु चीन्हा । जैसे रघुनायक माहि दीन्हा । चूड़ामनि उतारि तब दयऊ । हरष समेत पवन-सुत लयऊ ॥१॥ हे माताजी ! मुझे कुछ पहचान, की चीज़ दीजिये जैसे रधुनाथजी ने दिया थो । तष जानकीजी ने चूडामणि उतार कर दे दी और हनूमानजी ने प्रसन्नता के साथ उसको ले ली ॥२॥