पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८९१

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राषचरित-सानस। १८ अवश्य ही मेरी ओर से क्षमा के लिये प्रार्थना करेंगे। अथवा यही मान लिया जाय कि लक्ष्मणजी के पाँव पकड़ने को कहा तो सीताजी परम वार्ड है 'रहत्त न भारतके चित चेत' के अनुसार जो कुछ कह दें अनुचित नहीं है। अथवा मारीच के चिल्लाने पर हमने लक्ष्मण का कहना नहीं माना उलटे उन्हे दुर्वचन कहा, मेरे उस अपराध को क्षमा करेंगे। इसलिये लक्ष्मणजी के चरणों को एकड़ने के लिये कहा। अवगुल एक मार मैं जाना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना नाय लो नयननिह कर अपराधा निसरत मान करहिं हठि बाधो Han .' मेरा एक ही अवगुण है उसको मैं जानती हूँ कि चियोग होते ही प्राणे ने पयान नहीं किया अर्थात् वे शरीर ही में बने हैं। हे नाथ! वह होप नेनों का है, ये प्रोण निकलने में हठ कर रुकावट करते हैं ॥३॥ शरीर से प्राणों के न निकलने के कारण को सोताजी ने कैसी मनोहर हेतु-सूचक युक्ति से पुष्ट किया कि इसके अपराधी नेत्र हैं, वे पर्शन के लोभ ले प्राणों को शरीर से बाहर नहीं होने देते 'काव्यलिन शलंकार' है। बिरह अगिनि तनु तूल समीरा । स्वास जरइ छन साँह सरीरा॥ नयन खवाहिँ जल निज हित लागी । जग्इ न पाव देह विरहागी un विरह रूपी अग्नि से शरीर रूपी सई श्वास रूपी हवा से क्षणमात्र में शरीर जल जाता; परन्तु नेत्र अपने हित के लिये जल बहाते हैं, इसी से विरहाग्नि में शरीर जलने नहीं पाता है॥४॥ सीता के अति लिपति विसाला । बिनहिँ कहें भलि दीनदयाला ॥५॥ हे दीनदयाल ! सीताजी की बहुत बड़ी विपत्ति न कहने ही में अच्छी है ॥५॥ 'दीनदयाल' शब्द में अंगूढ़ व्यन्न है कि आप दोनों पर दया करनेवाले हैं और सीताजी अत्यन्त दीनावस्था में हैं। उनका दुःख सुन कर आप से न रहो जायगा, इस से न कहने ही में अच्छा है। ०-निमिष निमिष करूनानिधि, जाहिँ कलप सम बीति । बेगि चलिय प्रा आनिय, शुज बल खल दल जीति ॥३१॥ हे करुणानिधे! सीताजी को एक एक निमेष (आँख बन्द कर खोलने का समय) कल्प के समान बीत जाता है। स्वामिन् शीघ्र चलिये और भुजाओं के बल से दुष्टों के दल को जीत कर सीताजी को ले आइये ॥ ३१ ॥ चौ०-सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना । भरि आये जल राजिव-नयना॥ बच्चन काय मन मम गति जाही। सपनेहुँबूक्तियबिपति कित्ताही॥१॥ सीताजी के दुःस्त्र को सुन कर सुख के स्थान प्रभु रामचन्द्रजी के कमलनयनों में अल भर आये। उन्हों ने कहा-वचन, तन और मन से जिस को मेरी गति है, उसको क्या स्वप्न में .