पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८९२

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । भी विपति समझनी चाहिये अथवा क्या उसे स्वप्न मै विपति पूछ सकती है ? "कदापि नहीं ॥१॥ सीताजी के दुःख को सुन कर मुख के स्थान स्वामी रामचन्द्रजी के नेत्रों में फरणा से प्रेमाश्रु उमड़ आये 'प्रभु सात्विक अनुभाव' है। कह हनुमन्त विपत्ति प्रा साई। जब तब सुमिरन सजन न होई ॥ केतिक बात प्रभु जातुधान की । रिपुहि जीति आनिनी जानकी ॥२॥ हनूमानजी ने कहा-हे नाथ ! विपति वही है जब आप का स्मरण और भजन न हो । स्वामिन् ! राक्षसों की कितनी बात है ? शन को जीत कर जानकीज़ो को ले श्राहए ॥२॥ हनूमानजी के साहस-पूर्ण फथन में 'उत्साह स्थायीभाव' है। । सुनु कपि ताहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनु धारी॥ प्रतिउपकार करउँ का तारा । सनमुख होइन सकत मन भारा ॥३॥ हे हनूमान ! सुनो, तुम्हारे समान उपकार करनेवाला शरीरधारियों में देवता, मनुष्य और मुनि कोई नहीं है। मैं कौन सा तुम्हारा प्रत्युपकार (भलाई के बदले में भलाई) कर, इस ले मेरा मन सामने नहीं हो सकता (तुम से लज्जित हो रहा है) ॥३॥ स्वामी की ओर से कृतज्ञता की इति है। इस वाक्यों में गूढ ध्वनि है कि प्रत्युपकार तो उसके साथ किया जाता है जिसके मन में कोई इच्छा वर्तमान हो, परन्तु तुम्हारे हृदय में किसी प्रकार के स्वार्थ का लेश भी नहीं है, तब से पया कर सकता हूँ. सुनु सुत ताहि उरिन मैं . नाहीं । देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥ पुनि पुनि कपिहि चितव सुरवाता । लोचन नीर पुलक अति गाता ॥४॥ हे पुत्र ! सुनो, मैं ने अपने मन में विचार कर देख लिया कि तुम से मैं उऋण (ऋण- मुक्त) नहीं हूँ। देवताओं के रक्षक रामचन्द्रजी बार बार हनूमानजी की शोर निहारते हैं, उनकी आँखों में आँसू भर पाये और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया ॥४॥ . स्वामी के मन में हनुमानजी के उपकार से जो सकाच उत्पन्न हुश्रा और उस से दर कर प्रेमाधीन हो नेत्रों में जल भर पुलकित शरीर से बारस्वार उनकी ओर देखना, कुछ बोल न सकना स्वरमन, अनु, रोमाञ्च आदि सात्विक अनुभावों का उदय है । विनयं- पंत्रिका के १०० चे पद में यही बात गोसाईजी ने कही है । "कपि लेवा वस भये कनौड़े कहेड पवनसुत आउ । देवे को न कळू रिनियाँ हौं, धनिक तु पत्र लिखाउ ॥" दो-सुनि प्रनु बचन बिलोकि मुख, गात हरषि हनुमन्त । चरन परेउ प्रेक्षाकुल, नाहि त्राहि भगवन्त ॥३२॥ प्रभु रामचन्द्रजी के वचनों को सुन कर और श्रीमुख देख कर हनूमानजी का शरीर आनन्द से भर गया। वे प्रेम में अधीर हो कर चरणों में गिर पड़े, कहने लगे कि-भगवन्त ! मेरी रक्षा कीजिये, मुझे बचाइये ॥३२॥