पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८९६

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पचम सोपान, सुन्दरकाण्ड । घर हरिगीतिका-कान्ह । चिक्करहि दिग्गज डाल महि गिरि, लोल सांगर खरारे । मन हरण दिनकर सोम सुर मुनि, नाग किन्नर दुख टरे । कटकटाहि मर्कट बिकट भट बहु, कोटि कोटिन्ह धावहीं। जय राम प्रबल प्रताप कोसल, नाथ गुन गल गावहीं ॥४॥ दिग्गज बिग्घाड़ते हैं, पृथ्वी डगमा हो रही है, पहाड़ हिलते हैं और समुद्र खलभला उठे । सूर्य, चन्द्रमा, देवता, मुनि, नाग और किन्नरों के मन में हर्ष हुश्रा, उनके दुम दूर हुए। बहुत से विकराल योद्धा घन्दर कटकटाते हैं और करोड़ों करोड़ों वीर दौड़ते जाते हैं। महावली प्रतापवान कौशलनाथ रामचन्द्रजीके गुण-समूह गाते हुए जय जयकार करते हैं ॥४॥ बानरी दलके लहित रामचन्द्रजी का प्रयाण वस्तु एक ही है, उससे दिग्गजों का चिल्लाना आदि और देवताओं की प्रसन्नता विरोधी कार्य का वर्णन होना 'प्रथम व्याघात अलंकार' है। दिग्गज चिकार, पृथ्वी का डगमगाना, पर्वतों का हिलना और समुन्द्र में चत. बली पड़ना कह कर वानरी-सेना के पराक्रम की अतिशय प्रशंसा करना 'सम्बन्धातिशयोक्ति भलंकार' है। सहि सक न बार उदार अहिपति बार बाराहि मोहई। गह दसन पुनि पुनि कमठ-पृष्ठ, कठोर खो किमि सोहई। रघुबीर रुचिर पयान प्रस्थिति, जानि परम सुहावनी । जनु कसठ-खर्पर सर्पराज खो, लिखस अबिचल पावनी ॥५॥ इस महान योझे को शेषनाग नहीं सह सके, वे बार बार मूर्छित हो रहे हैं। कछुए की कठिन, पीठ को फिर फिर दांतों से पकड़ते हैं, वह कैसा शामित हो रहा है मानों रघुनाथजी की मालीक यात्रा को बहुत काल पर्यन्त ठहरनेवाली और अत्यन्त सुहावनी जान कर सों के मालिक कच्छप की खोपड़ी पर उसकी निश्चल पवित्रता लिखते हैं। ॥५॥ शेषनाग बोझ से दब कर दाँतों से पार वार कछुए की पीठ इसलिये पकड़ना चाहते हैं कि मैं फिसल न पडूं। कमठ की कठोर पीठ में दाँत चुभते नहीं; बार बार पकड़ने की चेष्टा करने से उस पर निशान हो रहे हैं, किन्तु कछुए की पीठ काग़ज़ नहीं है और न शेषजी के दाँत लेखनी हैं, यह केवल कवि की कल्पनामात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। दो०-एहि बिधि जाइ कृपानिधि, उतरे सागर तीर । जहँ तह लागे खान फल, भालु बिपुल कपि बीर ॥३॥ इस प्रकार कृपानिधान रामचन्द्रजी जाकर समुद्र के किनारे उतरे (डेरा किया)। असंखयों शरवीर भालु और बन्दर जहाँ तहाँ फल खाने लगे ॥३५॥