पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८९८

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४५ पञ्चम पान, सुन्दरकाण्ड । ६५ चौ-सवन सुनी सठ ताकरिवानीविहँसा जगतबिदित अभिमानी। समय सुभाव नारि कर साँजा मङ्गला महँ अय मन अति काँचा ॥१॥ अगत्प्रसिद्ध अभिमानी दुध रावण उसकी बार कान से सुन कर हँसा और बोला । संचमुच स्त्रियों का स्वभाव डरपोक होता है, मझल के समय में डर ! बड़ा कच्चा मन है ॥१॥ जी आवई मरकट कटकाई। जियहिं विचार निखिचार खोई॥ कम्पाहि लोकप जाकी नासा। तासु नारि सभीत बडि हाँखा ॥२॥ यदि बोनरों की सेना आवे तो वेचार राक्षस उसको खा कर जियेंगे । जिसके डर से लोकपाल काँपते हैं, उसकी स्त्री भयभीत हो बड़ी हँसी की बात है ॥२॥ जिसके पति के डर से इन्द्रादि काँपते हैं, उसकी स्त्री का वानरों से डरना उपहास की बात है। कारण और रूप का, कार्य दूसरे रूप का द्वितीय विषम अलंकार' है। असकहि बिहँसि ताहि उर लाई। चलेउ समा ममता अधिकाई॥ मन्दोदरी हृदय कर चिन्ता । अयउ कन्त पर निधि निपीता ॥३॥ ऐसा कह कर हला और उसको हृदय से लगा कर बड़े अभिमान के साथ समा.को चला । मन्दोदरी मन में चिन्ता करने लगी कि स्वामी पर विधाता प्रतिकूल हुए हैं ॥३॥ बैठेउ सभा ख बरि असि पाई। सिन्धु पार सेना सब आई। बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहा ॥४॥ सभा में बैठने ही ऐसी खबर मिली कि समुद्र के उस पार वानरों की सारी फौज आ गई । मन्त्रियों से पूछा कि मुनासिब सलाह कहो, (अब क्या करना चाहिये ) वे सब हँसे और बोले कि आप चुप रहिये ॥४॥ जितेहु सुरासुर तब स्लम नाहीं । नर बानर केहि लेख माहीं ॥३॥ आपने देवता और दैत्यों को जीत लिया; किन्तु श्रम (थकावट) नहीं हुश्रा, तब मनुष्य और बन्दर किस गिनती में हैं ? ॥५॥ • जब सुरासुर को जीत लिया, तब मनुष्य और बन्दर उनसे बढ़ कर नहीं दे तो जीते जिताये हैं, यह काव्यार्थापत्ति अलंकार' है। दो०-सचिव वैद गुरू तीनि जौ, प्रिय बालहिँ भय आस । राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगिही नास ॥३७॥ मन्त्री, वैद्य और गुरु ये तीनों यदि डर कर प्राशा (सहायता पाने की इच्छा) से प्रिय लगनेवाली (मुहदेखी) बात कहते हैं, तब राज्य, धर्म और शरीर तीनों का तुरन्त ही माश होजाता है ॥३७॥ fast