पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/८९९

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द६ रामचरित मानस । सचिव, वैद्य, गुरु कह कर उसी क्रम से राज्य, शरीर और धर्म कहना चाहता था। क्योंकि मन्त्री के लल्लोचप्पो से राज्य, वैद्य के मुँहदेखी कहने से शरीर और गुरु के कयन से धर्म नष्ट होता है। वह न कह कर राज्य, धर्म, तन कहना 'भकाम यथासक्य अलंकार' है। चौ०-सोइ रावन कह बनी सहोई । अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥ अवसर जाति बिभीषन आवा । साता चरन सीस तिन्ह नावा ॥१॥ वही रावण को सहायता बन पाई है, (झूठी तारीफ) सुना सुना कर मन्त्री लोग बाई करते हैं। समय जान कर विभीपण श्राया, उसने भाई के चरणों में सिर नवाया ॥१॥ पुनि सिर नाइ बैठ निज आसन । वाला बचन पोइ अनुसासन ॥ जौँ कृपाल पूछेहु मोहि बाता । मति अनुरूप कहउँ हित ताता ॥२॥ प्रणाम करके फिर अपने श्रासन पर बैठ गया, रावण की अगला पा फर वचन बोला! हे कृपालु-बन्धु ! यदि आप मुझ से सलाह पूछते हैं तो मैं अपनी बुद्धि के अनुसार श्राप के कल्याण की बात कहता हूँ॥२॥ जो आपन चाहइ कल्याला । सुजस सुमति सुभगति सुख नाना ॥ सो पर-नारि लिला गोलाई । तजइ चौथि के चन्द कि नाई ॥३॥ जो अपना कल्याण, सुयश, सुबुद्धि, सुन्दरगति (मोक्ष) और नाना प्रकार के सुनो को चाहे, वह पराई स्त्री का माथा, (मुख) चौथ के चन्द्रमा, की तरह (कलकप्रद जान कर) त्योग दे ॥ विभीषण उपदेश तो रावण को देते हैं, परन्तु वह बड़ा बन्धु और राजा है इसलिये यह सीधे न कह कर कि आप बुरे कर्मों को छोड़ दें, अन्य के प्रति उद्देश्य कर कहते हैं जिसमें वह समझ कर अपने को सुधार ले 'गूढोकि अलंकार' है। पुराणों की कथा है कि भादों सुदी ४ के चन्द्रमा को देखने से कला लगता है, इसलिये उस दिन कोई चन्द्रमा को नहीं देखता। इसी कारण श्रीकृष्ण भगवान् को स्यमन्तकमणि चुराने का कलङ्क लगा था । यदि इस चन्द्रमा पर दृष्टि पड़ जाय तो दोष परिहार के लिये ख्यमन्तकोपाख्यान को बाँचते और सुनते हैं। चौदह भुवन एक पति होई । भूत-द्रोह तिष्ठइ नहिं साई ॥ गुनसागर नागर नर जोऊ । अलप-लोभ भल कहइ न कोऊ ॥४॥ चौदहों लोगों का प्रक्षेला स्वामी हो. किन्तु जीव मात्र से विरोध करके वह भी नहीं ठहर सकता । जो मनुष्य चतुर और गुण का समुद्र है, उस में थोड़े भी लाभ को कोई अच्छा नहीं कहता ॥४॥ दो-काम क्रोध मद लाभ सब, नाथ नरक के पन्थ । सन परिहरि रघुबीरही, भजहु मजहिँ जेहि सन्त ॥३८॥ हे नाथ ! काम, क्रोध, मद और लाभ ये सव नरक के मार्ग हैं। सर का त्याग करके रघु- नाथजी को मजिये जिन्हें सन्त लोग भजते हैं ॥३॥