पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९

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की सजावट पहले से कम नहीं, अर्थात् पुस्तक को सर्वात सुन्दर बनाने में पूर्ण उद्योग किया गया है। इतने पर भी मूल्य सर्वसाधारण के सुपीतार्थ घटा दिया गया है। इस दीका के लिखने में पंडित रामवक्त पाण्डेय और बाबू श्यामसुन्दर पास को टोकाओं से हमें कहीं कहीं अच्छे भाव प्राप्त हुए हैं वथा टिप्पणी लिखने में सहायता मिली है अतएव इन युगल महानुभावों की लता स्वीकार करते हुए उन्हें हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं। रामायण के प्रेमी विवानों और रामभक्तजने से हमारा नम्र निवेदन है कि यद्यपि शुद्धता की ओर विशेष ध्यान रक्खा गया है, फिर भी भ्रमवश या दृष्टिदोष से अथवा छपते समय मात्राओं के टूट जाने किम्वा अक्षरों के निकल जाने ले प्रायः अशुद्धियाँ हो जाया करती हैं। यदि ऐसी श्रुटियाँ कहाँ हिखाई पड़े तो उन्हें सुधार कर पढ़ेगे । जब हरिवरिश को सरस्वती, शेष, ब्रह्मा, शिव, शनकादि ऋषीश्वर, शास्त्र, पुराण, घेदादि नेति नेति कहते हुए सदा गान करते हैं, तब उसको एक साधारण मनुष्य गान करके किस प्रकार पार पा सकता है ? एकमात्र पाणी पवित्र करने और जीधन सार्थक बनाने के लिये रामयश गान किया जाता है, न कि पार पाने के निमित्त जिसका वारापार ही नहीं, उसका कोई पार किस तरह पा सकता है ? इस विषय में तो मेरी यह धारणा है कि- जल सीकर महिरज गनि जाहीं । रघुपति चरित न परनि सिराही । सन्देहा । जन जन सजन प्रिय एहा। राम उपासक जे जग माहीं । एहि सम प्रिय तिन्ह के कछु नाहीं । विमल कथा हरिपद दायनी । भगति होइ सुनि अनपायनी ॥ मन क्रम बचन जनित अघ जाई । सुनहिं जे कथा सक्न मन लाई ॥ मुनि दुर्लभ हरिभगति नर , पावहिं बिनहि प्रयास । जे यह कथा निरन्तर , सुनहिँ मानि बिस्वास । सोइ सर्वज्ञ गुनी साइ ज्ञाता । सोइ महि मंडित पंडित दाता ।। धर्म परायन साह कुलत्राता । रामचरन जाकर मन राता । मि० कार्तिक शुकर सोमवार, सज्जनों का कपातो- सम्वत १४ विस महावीर प्रसाद मालवीय वैद्य 'वीर', भव भजन गञ्जन