पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रथम सोपान, बालकाण्ड । 'सुमति' में शान्दी व्यङ्ग है कि हनूमानजी ने मारी के बतलाने पर राक्षस का छल जाना, किन्तु नाम रूपी हनूमान मतिमान है, बिना किसी के सुझाये कलि के कपट का नाशक है। दो०-राम नाम नरकेसरी, कनककसिपु कलिकाल । जापक जन प्रहलाद जिमि, पालिहि दलि सुर साल ॥२७॥ राम नाम नृसिंह रूप है और कलिकाल हिरण्यकशिपु है। जप करनेवाले भक्तजन प्रसाद रूप हैं। नाम रूपी नृसिंह देवताओं के दुखदाई हिरण्यकशिपु का नाश कर जापक-प्रहाद की रक्षा करेगा ॥ २७॥ चौ०-भाय कुमाय अनख आलसहूँ। नाम जपत मङ्गल दिसि दसहूँ ॥ सुमिरि सो नाम राम गुनगाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा ॥१॥ प्रीति, बैर, गुस्सा अथवा प्रालस्य से भी नाम जपने पर दशों दिशाओं में माल होता है । वही राम-नाम स्मरण कर के और रघुनाथजी को मस्तक नवा कर उनके गुणों की कथा निर्माण करता हूँ॥१॥ चाहे प्रेम से या दुर्भाव से जपे, क्रोध से अथवा आलस्य से, नाम स्मरण करे। वह सब के लिए समान मङ्गलकारी है। हित अनहित में एक ही धर्म कल्याण करना 'चतुर्थ- तुल्ययोगिता अलंकार' है। मोरि सुधारिहि सोसब भाँती । जासु कृपा नहिँ कृपा अघाती ॥ राम सुखामि कुसेवक मो सो । निज दिसि देखि दयानिधि पोसा ॥२॥ वही (रामचन्द्रजी) मेरी सब तरह से सुधारेंगे, जिनकी कृपा से कृपा भी नहीं अपाती अर्थात् कृपा भी जिनकी कृपा चाहती है। रामचन्दजी के समान श्रेष्ठ सामी और मेरे समान नीच सेवक ! पर अपनी ओर देख कर ही दयानिधान मुझे पालते हैं ॥२॥ जिनकी कृपा से कृपा भी तृप्त नहीं होती, कृपालु रामचन्द्रजी को दयालुता उदारता भाव का अति करके वर्णन होना अत्युक्ति अलंकार' है । कहाँ रामचन्द्रजी के समान श्रेष्ठ स्वामी और कहाँ मेरे समान अधम सेवक ! इस अनमेल, में 'प्रथम विषम अलंकार, है । "ज्ञासु कृपा'नहिँ कृपा अधातो" का अर्थ कुछ विद्वानों ने इस तरह किया है-~-"जिनकी कृपा भक्तों पर दया करने से कभी नहीं पूरी होती, अथवा जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अधाती".! लोकहु बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती ॥ गनी गरीब ग्राम नर नागर । पंडित मूढ़ मलीन उजागर ॥३॥ अच्छे मालिक की रीति लोक में और वेदों में भी जाहिर है कि वे विनती सुन कर प्रार्थना करनेवाले की प्रान्तरिक प्रीति पहचान लेते हैं। अमीर, गरीब, गवई के रहनेवाले, नगर- निवासी, पण्डित, मूर्ख, मलिन (बुरे और विख्यात-॥३॥