पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९००

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पञ्चम सोपाल, सुन्दरकाण्ड २७ काम क्रोधादि के विषय में तिरस्कार उत्पन्न कराकर जिन्हें सन्तजन भजते हैं, उनका भजन करो ' निद स्थायीभाव है। चौ०-तात राम नहिँ नर शूपाला । भुवनेश्वर कालहु कर काला ॥ ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता । व्यापक अजित अनादि अनन्ता ॥१॥ हे भाई! रामचन्द्रजी मनुष्य राजा नहीं हैं, वे सम्पूर्ण लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। ब्रह्मा, निर्दोष, जन्म रहित, ऐश्वर्यवान, सर्वव्यापक, नहीं जानने योग्य, अनादि और अनन्त हैं ॥१॥ सत्य नर राजस्व को छिपा कर कि रामचन्द्रजी मनुष्य राजा नहीं हैं, भुवनेश्वर काल के काल, ब्रह्म उपमान का स्थापन करना शुखापन्हुति अलंकार' है। गो द्विज धेनु देव हितकारी । पासिन्धु मानुष तनु धारी॥ जन रजन अजन खाल नाता । बेद-धर्म रच्छक सुनु माता ॥२॥ गौ, ब्राहाण, पृथ्वी और देवताओं के कल्याणार्थ कृपासागर (रामचन्द्रजी) ने मनुष्य-देह धारण किया है । हे भाई! सुनिये, वे भक्कसज्जनों को प्रसन्न करनेवाले, दुष्ट-समुदाय के नाशक और वैदिक धर्म के रक्षक है ॥ २ ॥ ताहि बघर- तजि नाइय माथा प्रनतारति मञ्जन रघुनाथा ।। देहु नाथ प्रभु कह बैदेही । मजहु राम शिनु हेत सनेही ॥३॥ उन से बैर त्याग कर सिर नवाइये, रघुनाथजी शरणागतों के दुःख को नसानेवाले हैं। हे. नाथ ! प्रभु रामचन्द्रजी) को जानकी दे दीजिये और बिना कारण स्नेह करनेवाले (रामचन्द्रजी) का भजिये ॥ ३॥ सरन गये प्रभु ताहु न त्यागा। निस्व-द्रोह-कृत अघ जेहि लागा .. जासु नाम जय ताप नसावन । सोइ प्रभु प्रगट सनु जिय रावना शरण जाने पर प्रभु रामचन्द्रजी उसे नहीं त्यागते जिसको सारे संसार से द्रोह करने का पाप लगा हो । हे रावण जी में समझो, जिनका नाम तीन तापों को न करने वाला है वे ही. जगदीश्वर प्रकट हुए हैं ॥ ४ ॥ दो०-बार बार पद लागउँ, बिनय करउँ दससीस । परिहरि मान-माह-सद, मजहु कोसलाधीस ॥ हे दशनान ! मैं चार चार चरणों में लग कर विनती करता हूँ कि श्राप अमिमान, मोह और मतवालेपन को छोड़ कर कोशलेन्द्र रामचन्द्रजी को भजो । 'मुनि पुलस्ति निज सिष्य सल, कहि पठई यह बात । प्रमु सन कही, पाइ सुअवसर तात ॥३९॥ हे तात ! पुलस्त्यमुनि (श्राप के पितामह) ने अपने शिष्य से यह बात कहला भेजी है। तुरन्त ही मैं ने स्वामी (आप) से अच्छा समय हो कर कही है ॥ ३६॥ तुरत से मैं