पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०२

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । कहे । सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और बोला कि अरे दुष्ट ! अब तेरी मौत सीप श्रा गई है ॥१॥ विभीषण ने नम्रता-पूर्वप हित के प्रमाणिक पचग कहे, जिससे रावण को प्रसन्न होना चाहता था, परन्तु वैला नहीं हुमा उलटे वह क्रोधित हो गया। कारण के विरुद्ध कार्य का उत्पन्न होना पचम विभावना अलंकार है। जियसि सदा सठ मार जियागा । रिपु कर पच्छ मूढ़ ताहि मावा । कहसि न खल अस को जग माहौँ । भुज अल जाहि जिता मैं नाहीं॥२॥ फ्यो रे दुष्ट ! तुलना मेरा जिनाया जी रहा है मूर्ख ! तुझ को शत्र का पक्ष सुहाता है ? अरे अधम ! कह तो सही, संसार में ऐसा कौन है जिले में अपनो भुजाओं के बा सेन जीत लिया हो।॥२॥ रामचन्द्र जी की प्रशंसा सुन कर रावण को असहनीय होना असूया समचारी है और पराक्रम में अपने को अधिक मानना 'गवं सम्चारीभाव' है। सभा की प्रति में 'भुजवल जेहि जीता मैं नाही पाठ है। मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती । सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥ अस कहि कीन्हेलि चरन प्रहारा । अनुज गहे पद बारहि धारा ॥३॥ मेरी नगरी में रह कर लपस्त्रियों पर प्रेम १ प्ररे कपटी! तू उन्हीं से जा कर मिल और नीति कह । ऐसा कहकर रावण ने लात मारा, लघुबन्धु-विभीषण बार बार उसके पाँव पकड़ कर ( पछताने लगे कि मेरा शरीर कठोर और श्राप के चरण अत्यन्त कोमल हैं चोट लगी होगी) शा पार्वतीजी ने प्रश्न किया कि स्वामिन ! विभीषण राजा का भाई और योगाथा, रावण के दुर्वचन कहने और लात मारने पर भी उसे क्रोध नहीं हुमा, पया कारण है ? उमा सन्त कइ इहइ बड़ाई । मन्द करत जो करई मलाई । तुम्ह पितु सरिल मलेहि माहि मारा । राम भजे हित नाथ तुम्हारा ॥४॥ शिवजी कहते हैं-हे उमा ! सन्तों की यही बड़ाई है जो उनके साथ नीचता करता है, वे उसकी भलाई करते हैं। विभीषण ने कहा-हे नाथ नाप मेरे पिता के समान हैं. मुझको भले ही मार दिया, पर श्राप का कल्याण रामचन्द्रजी के भजने ही में है ॥५॥ सन्तों का मिन और शत्रु दोनों के साथ भलाई करना 'चतुर्थ तुल्ययोगिता अलंकार' है। सचिव सङ्ग लेइ नम-पथ गयऊ । सनहि सुनाइ कहत अस मया ॥५॥ अपने मत्रियों को साथ लेकर विभीषण श्राकाश-माग में गये और सब को सुना कर ऐसा कहा ॥५॥ विना पहनाले प्राणियों को गमन करने के लिये प्रसिद्ध आधार स्थल है, उसे छोड़ कर निराधार श्राकाश-मार्ग में मन्त्रियों के सहित विभीषण का जाना 'प्रथम विशेष अलंकार' है।