पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०३

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रामचरितमानस । दोश-राम सत्य सङ्कल्प प्रशु, समा काल-बस तारि। मैं रघुबीर सरन अच, जाउँ देहु जनि खोरि ॥४१॥ प्रभु रामचन्द्रजी सत्यसकरप हैं। (उन्यों ने राक्षस-पंश के संहार को प्रतिक्षा की है, यह झूटी नहीं हो सकती इसी से ) तेरी मण्डली काल-वश हुई है। अब मैं रघुनाथजी की शरण में जाता हूँ, मुझे दोष न देना ॥४॥ बो- -अस कहि चला बिभीषन जनहीं। आयू-हीन भये सब तयहीं । साधु अवज्ञा तुरत भवानी । कर कल्यान अखिल कै हानी ॥३॥ ऐसा कह कर ज्यों ही विभीपण यहाँ से चणे; त्यों ही सय राक्षस प्रायु हीन हो गये। शिरजी कहते हैं- हे भवानी ! साधु पुरुष का अनादर करना सम्पूर्ण कल्याणों का नाश कर देता है ॥१॥ पहले एक विशेष बात कही फि ज्यों ही विभीपण लका से चला त्योही सब आयुर्वल रहित हुए। फिर इसे साधारण सिद्धान्त से दृढ़ करमो कि साधुओं का अपमान करना समस्त कल्याण को नसाता है अर्थान्तरन्यास अलंकार' है। राबन जबहिँ बिभीषन त्यागा । अयउ विभव चिनु तबहिं अभागा ॥ चलेउ हरषि रघुनायक पाही। करत मनोरथ बहु मन माहीं ॥२॥ ज्यों ही रावण ने विभीषण को त्याग दिया त्योंही वह अभागा बिना ऐश्वर्या का हे। गया। विभीषण बहुत तरह के मन में मनोरथ करते हुए प्रसन्न होकर रघुनाथजी के पास चले ॥२॥ देखिहउँ जाइ चरन-जलजाता । अरुन मृदुल सेधक सुख-दाता ॥ । जो पद परसि तरी रिषि-नारी । दंडक-कानन पावन-कारी ॥३॥ मैं जाकर उन लाल कोमल चरण कमलों को देखूगा जो सेवकों को सुख देनेवाले हैं। जिन चरणों को छूकर ऋषि-पत्नी (गौतमजी की स्त्री) तर गई और जो दण्डक न के पवित्र करनेवाले हैं (उनके दर्शन करूँगा) ॥शा विभीषण के सभी मनोरथ साभिप्राय हैं, अरुण मृदुल कोमल-वरण कहने में अक्षण शब्द रजोगुण का सूचक है । इस से राज पाने की इच्छा और कोमल शब्द से अल्प साधन द्वारा मिलने का अभिप्राय प्रकट होता है। मैं जड़ पापी है, उन्होंने पत्थर की स्त्री और धन को पावन किया तब मेरा भी उद्धार करेंगे। यहाँ विभीषण के मन में ईश्वर दर्शन की इच्छा ले अपूर्व उत्कण्ठा उत्पन्न हुई है वह देवविषयक रति स्थायीभाव है। जे पद जनक-सुला उर लाये । कपट कुरङ्ग सङ्ग घर धाये। हर उर सर सरोज यैद जेई । अहोभाग्य है देखिहउँ तेई ॥४॥ जिन चरखों को जनकनन्दिनी हृदय में धारण किये हैं और जो कपदी मुग का साथ