पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०४

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५१ पजुम सोपान, सुन्दरकाण्ड । पकड़ कर दौड़े हैं। जो शिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर में फमल रूप हो कर निवास करते हैं, अहामाग्य है कि मैं उन्हीं चरणों के दर्शन करूंगा ॥४॥ जनकनन्दिनी का नाम लेने में आशय यह है कि यदि दूर ही रखेंगे तो सीताजी की भाँति उनके चरणों को हृदय में धारण कगा। मैं कपटी हूँ, कदाचित त्याग कर इस पर सन्ताप प्रकट करते हैं कि वे कपटी लग के पीछे दौड़े हैं । परम्परा की ओर देख क्षर विचा- रते हैं कि हमारे कुल के गुरुदेव शिव भगवान के हदय में बसते हैं । श्राज मैं उन्हीं चरणों के वर्शन करूँगा, अहोभाग्य है। दो-जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि, भरत रहे अन लाइ। ते पद आजु बिलोकिहउँ, इन्ह नयनन्हि अब्ज जाइ ॥१२॥ जिन चरणों के खड़ाउनों में भरतजी मन लगाये हुए हैं, अम में जाकर या उन्हीं चरणों को इन आँखों से देखेंगा ॥४२॥ भरतजी के स्मरण से पेश्वर्य मद त्याग कर निरन्तर तपस्थल में निवास फर चरणों लय लगाने का मनसूवा बाँधते हैं। चौ०-एहि बिधि करत सप्रेम बिचारा । आयउ सपदि सिन्धु एहि पारा॥ कपिन्ह बिभीषन आवत देखा । जाना को रिष दूत बिसेखा ॥१॥ इस तरह प्रेम के साथ विचार करते हुए तत्काल समुद्र के इस पार शो गये। बन्दरों ने विभीषण को आते देख कर समझा कि यह शत्रु का कोई बड़ा (खास) दूत है ॥१॥ लझा से विभीषण का चलना और विना विलम्य वात की बात में वानरीदल के समीप पहुँच जाना अर्थात् कारण और कार्य का एक साथ कथन होना 'प्रथम हेतु अलंकार' है। ताहि राखि कपीस पहिं आये । समाचार सब ताहि सुनाये। कह सुग्रीष सुनहु रघुराई । आशा मिलन दसानन भाई ॥२॥ उनको वहीं रोक कर वानरराज के पास आये और सब समाचार उनले कह सुनाया। सुग्रीव ने कहा-हे रघुराज ! सुनिये, रावण का भाई श्राप से मिलने आया है ॥२॥ कह प्रक्षु सखा बूझिये काहा । कहइ कपील सुलहु नरनाहा ॥ जानि न जाइ निसाचर माया । काम-रूप केहि कारन आया ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी ने कहा-हे मित्र ! (उसके आने का प्रयोजन) क्या समझते हो ? सुग्रीव ने कहा- हे नरनाथ ! सुनिये, इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले राक्षसों का कपट जाना नहीं जाता कि किस कारण आया है | ॥३॥ भेद हमार लेन सठ आवा । राखिय बांधि माहि अस भावो। तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत-भय-हारी ॥४॥ जान पड़ता है कि यह दुष्ट हमारा भेद लेने आया है, मुझे ऐसा सुहाता है कि (युद्ध सखा नीति