पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०५

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रामचरितमानस पूर समाप्ति पर्यन्त जिसमें लङ्का में लौटने न पावे) बाँध कर रख लिया जाय । रामचन्द्र जी ने कहा--हे मित्र ! आपने अच्छी नीति विचारी है, परन्तु मेरी प्रतिज्ञा शरणागतों के भय को दूर फरने की है ॥ रामचन्द्रजी का पहले यह शहना किनापने गीति की अच्छी यात सोची है, फिर दुसरी । पात कह कर अपनी प्रथम कही हुई वात का निषेध करना कि मेरो प्रतिक्षा शरणागतो के भय को हरने की है। कदाचिरा वह शरण पाया हो तो बँधुमा बनाना बड़ा अनर्थ होगा 'उका. क्षेप अलंकार' है। सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना । सरनागत बच्छल भगवाना ॥५॥ प्रभु के वचन सुन कर भगवान् को शरणागत वत्सल जान उनम प्रसन्न हुए शुष्टका में यह अर्याली चौपाई नहीं है, मालूम होता है छापे के दोष से छूट गई है। -जरनागल कहँ जे तजहि, निज अनहित अनुमानि । ते नर पाँकर पापमय, तिल्हहिं बिलेाकत हानि ॥४३॥ शरण बाये हुए को अपनी हानि विचार कर जो त्याग देते हैं, वे मनुष्य नीच और पाप के रूप हैं उनको देखने से हानि होती है ॥४॥ ची-कोटि बिप्रबध लागइ जाहू । आये सरन तजउँ नहि ताहू ॥ सनमुख होइ जीव माहि जबहीँ । जनम कोटि अघ नासहितबहीं॥१॥ करोने ब्रह्म-हत्या जिसको लंगो हो, शरण आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जिस समय जीव मेरे सन्मुख होता है, उसी समय उसके करोड़ों जन्म के पाप नाश हो जाते हैं ॥१॥ . पापवन्त कर सहज सुभाऊ । अजन मेार तेहि भाव न काज॥ जौँ पै दुष्ट हृदय सोइ होई । मारे सनमुख आव कि साई ॥२॥ पापियों का सहज स्वभाव है कि उनको कभी मेरा भजन नहीं अच्छा लगता । यदि वह (विसीषण) दुष्ट-हदय होता तो क्या वह मेरे सामने श्राता ? ॥२॥ निर्मल लन जन सो मोहि पावा । माहि कपट छल-छिद्र न भावा ॥ भेद लेन पठवा दससीसा । तबहुँ न मछु भय हानि कपीसा ॥३॥ जो मनुष्य निर्मल मन का है वही मुझे पाता है, मुझ को दम्म और कपट का व्यवहार अच्छा नहीं लगता । हे वानरेन्द्र ! यदि रावण ने भेद ही लेने के लिये भेजा है तो भी कुंछ डर घो हानि नहीं ॥३॥