पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०६

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । जग महँ सखा निसाचर जेते। लछिमन हनई निमिष ' महँ तेते ॥ जाँ समीत आवा सरनाई। रखिहउँ ताहि प्रान की नाँई ॥2॥ हे सम्मा! संसार में जितने राक्षस हैं उन सब को पलक भर में लक्ष्मण मार सकते हैं। यदि भयभीत होकर शरण श्रआया है तो मैं उस को प्राण फे समान (रक्षित) रक्खंगा ॥१॥ दो०--उभय भाँति तेहि आनहु, हँसि कह कृपा-निकेत । जय कृपाल कहि कपि चले, अङ्गद हनू समेत ॥gen . कृपानिधान रामचन्द्रजी ने हँस कर कहा- उसको दोनों तरह से (भेद लेने आया हो वा शरण) ले प्रायो। अशद और हनुमानजी के लहित बन्दर कृपालु रामचन्द्रजी की जय को कह कर चले ॥४an चौ०--सादर तेहि आगे करि बानर । चले जहाँ रघुपति करुनाकर ॥ दूरिहि हैं देखेउ दाउ साता। नयनानन्द दान के दाता ॥१॥ धानर वृन्द भादर के साथ विभीषण को आगे करके वहाँ चले जहाँ दया की खानि रघुनाथजी हैं। नेत्रों को शानन्दपान के दाता दानों भाइयों को विभीषण ने दूर ही से देखा ॥१॥ बहुरि राम छवि-धाम बिलोकी । रहेउ ठठुकि एकटक पल रोकी । भुजप्रलम्ब कजारुल लोचन । स्यामल गात अनत अथ मोचन ॥२॥ फिर शोभा के धाम रामचन्द्रजी को देख कर स्तम्मित हो टकटकी लगाये पलकों को रोफ कर निहारने लगे। लम्बो भुमार, लाल कमल के समान नेत्र, श्यामल शरीर और शरणागों के भय को छुड़ानेवाले हैं ॥२॥ प्रेम मुन्ध होकर विभीषण का जड़त्व को प्राप्त होना स्तम्भ सात्विक अनुभाव है। सिद्ध कन्ध आयत उर सोहा । आनन अमित मदन मन मोहाँ । नयन नीर पुलकित अति गातां । मन धरि धीर कही मृदु आता ॥३॥ सिंह के समान ऊँचे कन्धे, चौड़ी छाती सोहती है, मुख झी छवि पर असंख्यों कामदेवों का मन मोहित होता है । नेत्रों में जल भरे, अत्यन्त पुलकायमान शरीर से मन से धीरज धर कर चिभीपण मधुर वाणी से बोले ॥३॥ नाथ दसानन कर मैं लाता । निसिचर बंस जनम सुरनाता । पापनिय तानसदेहा । जथा उलूकहि तम पर नेहा ॥४॥ हे नाथ ! मैं रावण का भाई हूँ, हे देवरक्षक ! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है ।मैं तमोगुणी शरीर का सहज ही पाप का प्रेमी हूँ, जैसे उन्ह पती का अँधेरे पर स्नेह होता है ॥३॥ . $ १०५