पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०७

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८३ , सामचरित मानस । निश्चर-वंश कहने में अपनी लघुता सूचित करने को ध्यान है। यह व्यहार्य और वाच्यार्थ बराबर होने से तुल्य-प्रधान गुणीभूत व्यन है। यहाँ लेग शदा करते हैं कि विभीषण ऋषिकुल में उत्पन्न है, फिर राक्षस-वंश क्यों कहा? उत्तर-विभीषण को अपनी लघुना प्रदर्शित करनी अभीष्ट है। रावण का भाई होने से ऐसा कहा । अथवा विभीषण की माता अपुर की कन्या थी, माता के सम्बन्ध से अपने को राक्षस कुल में कहा है। दो-सवन सुजस सुनि आय, प्रभु भजन भव भीर । नाहि त्राहि आरखि हरन, सरन सुखद रघुधीर ॥४॥ हे प्रभो ! आप का सुयश कान से सुन कर पाया है कि आप संसार के भयों को चूर चूर करने वाले हैं । हे शरणागतों के सुख देनेवाले रघुनाथजी ! आप दोन दुःखहारी हैं, मेरी रक्षा कजिये, रक्षा कीजिये ॥४॥ विभीषण के कथन में सम अलंकार की ध्वनि है कि संसारी श्रास दूर करने में आपको कीर्ति है और मैं रावण द्वारा प्रस्त हूँ। श्राप आतिहरण हैं, मैं आपाप शरण सुखद हैं, मैं शरण पाया हूँ। आप रघुकुल के वीर हैं, मैं श्राप की भुजाओं की छाया में रहना चाहता इत्यादि। चौ--अस कहि करत दंडवत देखा । तुरस उठे प्रभु हरष बिसेखा ॥ . दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा । झुज बिसाल गहि हृदय लगावा ॥१॥ ऐसा कह कर दण्डवत करते देजा, प्रभु रामचन्द्रजी तुरन्त बड़े हर्ष से उठे। दीन वचन सुन कर वे स्वामी के मन में पहुत अच्छे लगे, विशाल भुजाओं से पकड़ कर इदय '. में लगाया! अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी । बोले बचन भगत भय-हारी कड लकेस सहित परिवारा । कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ॥२॥ छोटे भाई लक्ष्मणजी लाहित मिल कर पास में बैठा लिया और भलों के भयहारी वचन बोले । हे लंकेश्वर ! रूपरिवार अपनी कुशल पाहा, क्योंकि तुम्हारा निवास अच्छी जगह में नहीं है ॥२॥ खल-मंडली बसहु दिन राती । सखा धरम निबहइ केहि भाँती ॥ मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती । अति नयनिपुन न भाव अनीती॥३॥ हे मिश! दिन रात खलों की मण्डली में निवास करते है।, आप का धर्म किस तरह निबहता है ? मैं तुम्हारी सघ रीति जानता हूँ कि बड़े नीतिश हो, 'अन्याय नहीं बरु मल बास नरक कर ताता। दुष्ट सङ्ग जनि देइ बिधाता । अब पद देखि कुसल रघुराया । जाँ तुम्ह कोन्हि जानि जन दाया ॥ हे तात ! बलिक नरक का बसना अच्छा है किन्तु दुष्टों का संग विधाता न दे। निमी." अच्छा लगता ॥३n