पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०८

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पञ्चम तापान, सुन्दरकाण्ड । पण ने कहा- हे रघुनाथजी । अब श्रीचरणों के दर्शन से कुशला है, यदि आपने अपना सेवक समझ कर क्ष्या की है ॥४॥ दुष्टों की संगतिमहा पुखदाई है, पधापि नरक का वास अज्ञीकार करने योग्य नहीं है, तो भी दुष्ट संग को अपेक्षा उसको गुणकारी मान कर स्वीकार करना 'अनुज्ञा अलंकार' है। मानुकवि ने इस चौपाई में द्वितीय उहास माना है। पर द्वितीय उल्लास तो वह है कि दूसरे के दोप से दूसरे में दोष उत्पन्न हो। दो-तबलगि कुसल न जीव कह , सपनेहुँ मन बिहाम॥ जबलगि भजन राम कहाँ, सोक-धाम तजि काम ॥६॥ जीप को बता कुशल नहीं और स्वप्न में भी मन को बैन नहीं मिलता, जब तक वह शोक के स्थान मनोरथों को त्याग कर शमन्द्रजी को नहीं भजता ॥४६ ची-तबलगि हृदय बसत रुल नाना । लाम माह मत्सर मद माना ॥ जबलगि उरन बलत रधुनायो । घरे चाप खोयक कटि माथा ॥१॥ तय तक हदय में लोभ, अक्षाग, ईर्शा, मतवालापन और घमण्ड आदि अनेक दुष्ट बसते हैं। हे रधुनाथजी ! जब तक हाथ में धनुष-बाण लिये और कमर में वरकस कसे हुए हवय में आप निवास नहीं करते ॥१॥ ममता तरुल तमी अँधियारी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥ सबलगि बसति जीव मन माहीं। जबलगि प्रभु प्रताप रशि नाहीं ॥२॥ 'मोह सपी घोर रात की अँधेरी राम और वेष रूपी उल्लुओं को सुल उत्पन्न करनेवाली तब तक जीव के मन में वसती है जब तक आपके प्रताप रूपी सूर्य का उदय नहीं होता ॥२॥ मिटे भय सारे । देखि राम-पद-कमल तुम्हारे ॥ तुम्ह कृपाल जापर अनुकूला । तोहि न व्याप त्रिबिधि भव सूला ॥३॥ हे रामचन्द्रजी ! आप के चरण-कमलों को देख कर मेरा भारी भय मिट गया, मैं कुशल से हूँ। हे कृपालु ! शिस पर श्राप प्रसन होते हैं, उसको तीनों प्रकार के संसारी दुख (जन्म, मृत्यु, गर्भवास) नहीं सताते ॥३॥ मैं निसिचर अति अधम कुमाऊ। सुभ आचरन कीन्ह नहिँ कांज॥ जासु रूप मुनि ध्यान न आवा (तेहि प्रहरषिहृदय माहि लावा ven मैं यत्यन्त नीच स्वभाव का राक्षस हूँ, कक्षा शुभावरण नहीं किया। जिन के रूप का ध्यान मुनियों के मन में नहीं आता, वे ही स्वामी प्रसश होकर मुझे हृदय से लगाया! दो०- अहोभाग्य मम अमित अति, राम कृपा सुख पुज । देखेउँ नयन बिरजि.सिन, सेव्य जुगल पदकज ॥१७॥ है कृपा और सुख के राशि रामचन्द्रजी ! मेरा बहुत बड़ा प्रशंसनीय माग्य है कि मैंने उन जिनकी सेवा ब्रही और शिवजी करते हैं ॥४॥ दोनों चरण कमलों को आँखों से देखा, अब मैं