पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९०९

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4 शासपरित-भानस। चौ०--सुनहु सखा निज कहउँ सुमाऊ । जान भुसुंडि सम्भु गिरिजाऊँ। जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवइ समय सरन तकि माही ॥१॥ रामचन्द्रजी ने कहा-हे मित्र ! जुनिये, मैं अपना स्वभाव कहता हूँ जिस को काग भुशुण्ड, शिवजी और पार्वती भी जानती हैं । यदि संसार भर का द्रोही मनुष्य हो और मेरी ओर देख कर भयभीत हो शरण पावे ॥१॥ तजि मद मोह कपट छल नाना । करउँ सदा तेहि साधु समाना । जननी जनक बन्छु सुत दारा । तन धन भवन सुहृद परिवारा ॥२॥ परन्तु घमण्ड, मोह, भेदभाव और तरह तरह के छल छोड़ कर (आवे तो) तुरन्त उसको मैं सज्जन-पुरुषों के समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, सम्पति, घर, मिन और कुटुम्बी ॥२॥ सन के समता साग बटोरी । अस पद सनहिँ बाँध बरि डोरी ॥ समदरसी इच्छा कछु नाही । हरष सेकि अय नहि मन माहीं ॥३॥ सव का ममत्व रूपी तागा इकट्ठा करके डोरी बट कर मन को मेरे चरणों में बाँधे अर्थात् सब मुझ को ही जाने । समदर्शी हा, कुछ इच्छा न रक्खे, हर्ष, शोक और भय मन में न लावे ॥३॥ अस सज्जन मम उर बस कैसे । लोभी हृदय बसइ धन जैसे ॥ तुम्ह सारिखे सन्त प्रिय मोरे । धरउँ देह नहिँ आन निहोरे ॥४॥ ऐसे सज्जन मेरे हृदय में कैले निवास करते हैं, जैसे लेभी मनुष्यों के मन में धन बसता है। आप के समान सन्त मुझे प्यारे हैं, मैं दूसरे के निहारे शरीर नहीं धारण करता हूँ॥४॥ दो०-सगुन उपासक पर-हित, निरत नीति हद नेम । ते नर मान समान मम, जिन्ह के द्विज-पद प्रेम ॥४॥ सगुण ब्रह्म के उपासक, पराये के हित में तत्पर, नीतिवान और नियम में पक्के रहते हैं। वे मनुष्य मुझे प्राण के समान प्रिय हैं जिनकी ब्राह्मण के चरणों में प्रीति है ॥४८॥ चौ०--सुलु लङ्केस सक्कल गुन तारे । तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरे ॥ राम बच्चन सुनि बानर-जूथा । सकल कहहिं जय कृपा-बरूथा ॥१॥ हे लङ्केश्वर! सुनिये, उपर्युक्त सभी गुण तुम्हारे में हैं, इसी से प्राप मुझे अत्यन्त प्रिय हो। रामचन्द्रजी के वचन सुन कर सम्पूर्ण वानर वृन्द कहते हैं कि कृपा की राशि कोशलेन्द्र भगवान की जय हो ॥१॥