पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१

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go रामचरितमानस । सुकबि कुकबि निज-मति-अनुहारी । नृपहि सराहत सब नर नारी ॥ साधु सुजान सुसील नृपाला । ईस-अंस-मव परम कृपाला un अच्छे कवि तथा वुरे कवि सब अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार क्या स्त्री, क्या पुरुष, राजा की सराहना करते हैं । राजा सज्जन, चतुर, सुन्दर, शीलवान् और ईश्वर के अंश से उत्पन्न बड़ा ही दयालु होता है ॥४॥ सुनि सनमानहि सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी ॥ कोसलराज ॥५॥ यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ । जान-सिरोमनि राजा सराहना सुन कर और उनकी कहनूत, प्रीति, नम्नता और पहुँच परख कर सुन्दर वाणी से सबका सम्मान करता है । यह इतर (संसारी) राजाओं का स्वभाव है; किन्तु कोश- लेन्द्र भगवान् जानकारों के शिरोमणि हैं ॥ ५ ॥ रीझत राम सनेह निसाते । को जग मन्द मलिन-मन मा ते ॥६॥ रामचन्द्रजी निरे स्नेह से प्रसन्न होते हैं पर संसार में मेरे समान नीच और मैले मनवाला. दूसरा कौन है ? ॥ ६॥ रामचन्द्रजी का केवल प्रेम से रीझना कारण है और सेवक का प्रेमी होना काय्यं है। . यहाँ गोस्वामीजी का यह कहना कि मेरे समान नीच पापी मनवाला कोई नहीं है। कारण और कार्य में विरोध की झलक 'प्रथम असङ्गति अलंकार' है। दो०-सठ सेवक की प्रीति रुचि, रखिहहिँ राम कृपालु। उपल किये जलजान जेहि, सचिव सुमति कपि भालु ॥ कृपालु रामचन्द्रजी मूर्ख सेवक की प्रीति और अभिलापा की रक्षा करेंगे, जिन्होंने पत्थर को जहाज़ रूप और बन्दर भालुओं को सुन्दर बुद्धिवाले मन्त्री बनाया । पहले एक सामान्य बात कही कि कृयासागर रामचन्द्रजी मूर्ख सेवक की प्रीतिरुचि का पालन करेंगे, फिर इस बात का विशेष सिद्धान्त से समर्थन करना कि जिन्होंने पत्थर को वाहित और बन्दर-भालु को सुजान मन्त्री बनाया 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है। हाँहुँ कहावत सब कहत, राम सहत उपहास । साहिब सीतानाथ से, सेवक तुलसीदास ॥२८॥ मैं भी (अपने को रामभक्त ) कहलाता हूँ और सब (मुझे रामदास , कहते हैं, राम- चन्द्रजी इस निन्दा को सहते हैं । कहाँ सीतानाथ के समान स्वामी और कहाँ तुलसीदास के समान सेवक! ॥२८॥ चौ०-अति बडि मारि ढिठाई खोरी । सुनि अघ नरकहुनाक सिकारी ॥ समुझिसहममोहिअपडरअपने। सो सुधि राम कीन्ह नहिं सपने ॥१॥ मेरी इस ढिठाई का बहुत बडा दोष सुन कर पाप और नरक भी नाक सिकोड़ते हैं अर्थात् मुझ से घृणा करते हैं। यह समझ कर मुझे अपने अपडर (कल्पित भय ) से संकोच हो रहा है, किन्तु रामचन्द्रजी ने इसका खयाल स्वप्न में भी नहीं किया ॥१॥