पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१०

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- yo एवमपातु । श्रय मुझे अपनी पवित्र भक्ति जो सदा शिवजी के मन में अच्छी लगती है, पचम खपान, सुन्दरकाण्ड । सुनत बिभीषन प्रमु कै बानी । नहिँ अधात लवनामृत जानी । पदअम्बुज गहि बारहि बारा । हृदय समात न प्रेम अपारा ॥२॥ प्रभु की वाणी सुन कर उसको कानों के लिये अमृत रूप जान कर विभीषण तृप्त नहीं होते हैं। पार वार वरण-कमलों को पकड़ रहे हैं, अपार प्रेम उनके मन में लमाता नहीं है ॥२॥ सुनहु देव संचराचर सनासी । प्रनतपाल उर अन्तरजामी ॥ उर कछु प्रथम बासना रही । प्रभु-पद-प्रीति-सरित से बही ॥२॥ विभीपण बोले-हे सचर के स्वामी देव ! सुनिये, आप शरणागतों के रक्षक और हृदय की बात जाननेवाले हैं। मेरे मन में पहले कुछ (राज्य पाने की) इच्छा थी, पर वह स्वामी के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई ॥ ३ ॥ 'अन्तर्यामी' शब्द में ध्वनि है कि श्राप से छिपाव क्ष्या आप मन की बात जानने- घाले हैं, इसी से साफ कर देता हूँ। अब कृपाल लिज गति पावनी । देहु सदा लिन मनमावनी ॥ कहि प्रक्षु रनधीरा । माँगा तुरत सिन्धु कर नीरा ॥४॥ दीजिये। रणधीर प्रभु रामचन्द्रजी ने कहा ऐसा ही हो, तुरन्त समुद्र का जल भगवाया ॥ रणधीर' ला साभिप्राय है, क्योंकि रण में पूर्ण साहसी पुरुष रावण जैसे प्रबल शत्रु के लङ्का राजधानी में राज्य करते हुए उसे वध करने का निश्चय करके ही विभीषण को राज्य दे सकता है। यह परिकार अलंकार है। जदपि सखा तव इच्छा नाही । मोर दरस अमोघ जग माहीं ॥ अस कहि राम तिलक तेहि सारा । लुमन अष्टि नम अई अपारा ॥५॥ रामचन्द्रजी ने कहा है सखा ! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, तथापि मेरा दर्शन संसार में निष्फल जानेवाला नहीं है। ऐसा कह कर रामचन्द्रजी ने उसको तिलक किया, आकाश से अपार फूलों की वर्षा हुई ॥५॥ दो०-रावन कोष अनल निज, स्वास समीर प्रचंड। जरत बिभीषन राखेउ, दीन्हेउ राज अखंड। रावण के शोध रूपी अग्नि में अपने श्वास रूपी प्रचण्ड चायु से जलते हुए विभीषण की रक्षा करके अखण्ड राज्य दिया। जो सम्पति सिव रावनहि, दीन्हि दिये दस माथ। सोइ सम्पदा विभीषनहि, सकुचि दीन्हि रघुनाथ nen जो सम्पति शिवजी ने रावण को दसों मस्तक चढ़ाने पर दी थी, वही सम्पदा विमो- षण को रघुनाथजी ने सकुच कर दी Ish