पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९११

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रामपरिस-मानस। जो सम्पति शिवजी ने दस मस्तक देने पर दी, यही सम्पति विभीषण को सकुचते हुए रघुनाथजी ने हो । यहाँ उपमेय , रामचन्द्रजी और उपमान शिवजी हैं। उपमान से उप- मेय में अधिकत्व वर्णन 'व्यतिरेक अलंकार' है । 'सफुच' शब्द में गुणीभूत व्यङ्ग है कि लका इसी की है, रावण के बाद इसके सिवाय कौन पोता? फिर हमने इसे क्या दिया कुछ नहीं। चौध-अस प्रभु छाडिसजहिं जेआना। ते नर पसु बिलु पूँछ विषाना। निज जन जानि ताहि अपलावा । प्रभुसुमाव कपिकुल मन भावा ॥१॥ ऐले स्वामी को छोड़ कर जो दूसरे की सेवो करते हैं, वे मनुष्य बिना पूछ भी सोंग के पशु हैं । अपना दाल जान कर विभीषण को शरण में ले लिया, स्वामी का यह स्वभाव वानर-वंश के मन में बहुत अच्छा लगा ॥२॥ पुनि सर्वज्ञ सर्व उर बासी । सर्वरूप 'सब रहित उदासी । बोले बचन नीति प्रतिपालक । कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥२॥ फिर सब जाननेवाले, सब के हदय निवासी, सर्वरूप, सब से रहित और उदासीन (न किसी के शत्रु न मित्र ) नीति के पालनेवाले, कारण से मनुष्य रूपधारी राक्षस कुल के नाशक रामचन्द्रजी वचन बोले ॥२॥ सब रूप और.सब से रहित. इल विरोधी कथन में 'विरोधाभास अलंकार' है। सुनु कपीस लङ्कापति बीरा । केहि बिधि तरिय जलधि गम्भीरा ॥ सङ्कल वकर उरग मष जाती । अति अगाध दुस्तर सब भाँती ॥३॥ हे पीर सुनीध और विभीषण ! सुनिये, इस गहरे समुद्र से किस प्रकार पार उतरना होगा ? मगर, साँप और नाना जाति की मछलियों से भरा बहुत ही प्रथा और सभी भौति पार करने में कठिन है ॥३॥ कह लकेस सुनहु · रघुनायक । कोदि सिन्धु सोषक तब सायक। जदापि तदपि नीति असिगाई । बिनय करिय सागर सन जाई ॥४॥ विभीषण ने कहा-हे रघुनायक ! उनिये, यद्यपि श्राप के बाण करोड़ों समुद्रों को सुखानेवाले हैं । तथापि नीति इस तरह कहती है कि आप चल कर समुद्र से बिनती कीजिये (तो वह माग का उपाय बतलावेगा) दो-प्रक्षु तुम्हार कुलगुरु जलधि, कहिहि उपाय बिचारि । बिनु प्रयास सागर तरिहि, सकल मालु-कपि धारि ॥५०॥ हे प्रभो ! समुद्र आप का कुल गुरु है, विचार कर उपाय कहेगा। जिससे, बिना परिक श्रम भालु-धन्दरों की सारी सेना समुद्र के पार उतर जायगी ॥५०॥ समुद्र को कुल-गुरु इसलिये कहा कि राजा-सगर के पुत्रों के खोदने से सागर उत्पति हुई है। .