पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१२

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पञ्चम सोपान, सुन्दरकाण्ड । चौ०--सखा कही तुम्ह नीकि उपाई। करिय दइव जौँ हाइ सहाई । मन्त्रनयह लळिमनमनमाना। रामा बचन सुनि अतिदुख पावा ॥१॥ रामचन्द्रजी ने कहा...हे मित्र! आपने अच्छा उपाय कहा, वही करूँगा यदि दैव सहायक हो (ो कार्य सिद्ध हो सकता है)। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन में नहीं अच्छी लगी, रामचन्द्रजी के वचन को सुन कर उन्हें बड़ा दुख हुआ ॥१॥ नाथ दैव कर कवन मरोला । सोल्लिय सिन्धु करिश्त्र भन रोला ॥ कादर मन कहँ एक अधारा । हैव देव आलसी पुकारा ॥२॥ लक्ष्मणजी ने कहा...हे नाथ ! देव का कौन सा भरोसा (दूसरा दैव कौन है १) मन में क्रोध कर के समुद्र को मुला दीजिये। दरपोक बालली के मन को एक देव दैव पुकारने का आधार है (किन्तु कर्तब्ध-शील शरीरों को देव का भरोसा केला १) ॥२॥ सुनत विहँसि बोले रघुबीरा । ऐसइ करन धरहु मन धीरा॥ अस कहि प्रयु अनुजहि समुस्काई । सिन्धु समीप गये रघुराई ॥३॥ सुनते ही रघुनाथजी हँस फर पोले कि कोसा ही कङ्गों मन में धीरज धरिये । ऐसा कह कर प्रभु रामचन्द्रजी ने छोटे भाई को समझाया, फिर समुद्र के पास गये ॥३॥ प्रथम प्रनास कोल्ह सिर नाई। बैठे पुनि तर दर्भ डसाई ॥ जयहिँ विक्षीणन म पहिं आये। पाछे रावना दूत पठाये ॥४॥ पहले समुद्र का मस्तक नवा कर प्रणाम किया, फिर कुशा बिछो कर किनारे पर बैठ गये। जिस समय विभीषण रामचन्द्रजी के पास आये, उसके बाद ही रावण ने गुप्तचर भेजे ॥m दो०-सकल चरित तिन्ह देखे, भरे कपट कपि देह । प्रभु गुल हृदय सराहहि, सरनागत पर नेह ॥५॥ उन दूतो ने छल से धन्दर की देह धारण करके सम्पूर्ण चरित्र देख्ने । शरणागत पर नेह, करना प्रभु के इस गुण की हदय में बड़ाई करते हैं ॥५१॥ चौ०-प्रगट बलानहिं राम खुलाऊ । अति सप्रेस गा बिसरि दुराऊ ।। रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने । सकल बाँधि कपीस पहिँ आने ॥१॥ घे अत्यन्त प्रेम के साथ प्रगट में रामचन्द्रजी का स्त्रमा बखागते, हैं, (प्रेम की दशा में कपट रह नहीं सकता, इससे) छिपाव भूख गया । तप बन्दरों ने जाना कि ये शन के दूत हैं, उन सब को बाँध पर सुग्रीव के पास ले आये ॥१॥ । कह सुग्रीव सुनहु सब बानर । अङ्गभङ्गकरि पठवहु निसिचर । सुनि सुग्रीव बचन कपि धाये । बाँधि कटक चहुँ पास फिराये ॥२॥ सुनीष ने कहा-सब चन्द्र सुनते जाओ, इन राक्षसों के अङ्गमा करके भेजो। सुग्रीव की पाबा सुन कर मन्धर दौड़े और बाँध कर सेना के चारों ओर घुमाया ॥२॥