पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१५

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८४२ रामचरित मानस ३२ थोड़ा है। असंखयों नाम के कठिन भयानक योद्धा हैं, उनमें असंख्यों हाथियों का बहुत बड़ा बल है ॥४॥ दो०--द्विबिद मयन्द नील नल, अङ्गदादि बिकटासि । दधिमुख केहरि कुमुद गव, जामवन्त बल रासि ॥४॥ द्विविद, मयन्द, नील,नल, अजद, विकटाक्ष्य, दधिमुख, केहरि, कुमुद, गव और जामवन्त आदि पल के राशि हैं ॥५४॥ शुटका में 'दद्धिमुख फेहरि निसठ स' पाठ है। चौ०-ये कपिसब सुग्नीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना रामकृपा अतुलित बल तिन्हही। टन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥१॥ ये सब बन्दर सुग्रीव के समान हैं, इनके समान करोड़ों अनेक नाम के हैं जिन्हें कौन गिन सकता है ? रामचन्द्रजी की कृपा से उनमें -प्रमाण पल है, वे तीनों लोकों को तिनके के बराबर समझते हैं ॥२॥ अस मैं खनन सुना दसकन्धर । पदुम अठारह यूथप बन्दर ॥ नाथ कटक महँ सो कपि नाही। जो न तुम्हहिँ जीतइ रन माहीं ॥२॥ हे दशानन ! मैंने ऐसा कान से सुना है कि अठारह पन सेनापति चन्दर हैं। हे नाथ! उस सेना में वैसा कोई वानर नहीं है जो श्राप को युद्ध में न जीत लेवे ॥२॥ एक एक यूथपतियों के साथ दस दस पाँच पाँच करोड़ वानरों की सेना है। अब अठारह पद्म केवल सेनापति हैं, तब सेनापतियों की सेना का शुमार कैसे किया जा सकता है ? परन क्रोध भी जहिँ सब्ब हाथा । आयसु पै न देहि रघुनाथा" सोखहिँ सिन्धु सहित झष ब्याला। पूरहि न त भरि कुधर बिसाला ॥३॥ अत्यन्त क्रोध से सब हाथ मलते हैं, (कि समुद्र का नाम मिटा दूं) पर रघुनाथजी भाशा नहीं देते हैं। वे मछली और सो के सहित समुद्र के जल को सोख लेंगे, नहीं तो बड़े बड़े पर्वतों से भर कर पाट देंगे॥३॥ मर्दि गर्द मिलवहिँ दससीसा । ऐसइ बचन कहहिँ सब कोसा ॥ गर्जहि तहिं सहज असङ्का । मानहुँ ग्रसन चहत्त हहिँ लङ्का ॥४॥ सब बन्दर ऐसा ही वचन कहते हैं कि रावण को मल कर धूल में मिला दूंगा। वे स्वाभाविक निडर गर्जते हैं, और डपटते हैं, उनकी चेष्टाओं से ऐसा मालूम होता है मानों लङ्का को खा जाना चाहते हो ॥४॥ मुख्य अर्थ लङ्का को नष्ट करने का है, वह बाध हो कर प्रसना कहना कढ़ि लक्षणा है।