पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। ८४४ रामचरित-मानस । ६४ कर छाती ठण्ढी कीजिये । रावण ने हस कर बायें हाथ से ली और मन्त्री को बुखा कर वह मूर्ख चिट्ठी पढ़वाने लगा ॥५॥ "छाती ठण्डी कीजिये" इस वाक्ष्य में ध्वनि है कि जो आप कहते हैं भेंट हुई या कि लौट गये ? इस पत्रिका ले विश्वास कीजिये कि वे लौटनेवाले हैं। दो-बातन्हु मनहिं रिफाइ सठ, जनि घालसि कुल खीस । साम बिरोध न उबरलि , सरन विष्नु अज ईस ॥ (पत्रिका में लिखा है कि अरे मूर्ख ! बातों से मन को प्रसन्न करके त् अपने कुल का भाश मत कर। रामचन्द्रजी के विरोध से विष्णु, ब्रह्मा और शिव की शरण जाने पर भी तेरा बवाव न होगा। की तजि मान अनुज इव, प्रभु-पद-पङ्कज भृङ्ग । होइ कि राम रानल, खल कुल सहित पतङ्ग ॥५६॥ या तो अपने छोटे भाई की तरह अभिमान छोड़ कर प्रभु के चरण-कमलों का भ्रमर हो । अथवा अरे दुष्ट ! रामचन्द्र जी के चाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पाँखी हो (कर भस्मीभूत हो ) ॥५६॥ --सुनत समय मन शुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई ॥ भूमि परा कर गहत अकाला । लघु तापस कर बाग-बिलासा॥१॥ सुनते ही रावण मन में भयभीत हुश्रा, परन्तु प्रत्यक्ष में मुख से मुस्कुरा कर और सब को सुना कर कहने लगा कि बड़ा तपस्वी (राम) धरती पर पड़ा हुआ आकाश पकड़ता है अर्थात् स्वयम् राज्य से निकाला गया जङ्गल पहाड़ों में भटकता है और दूसरों को राज्य देता फिरता है, छोटे तपस्वी का यह वाग्विलास ! ( कैसी लम्बी डींग हाँकी है ! ) ॥१॥ मुख से मुस्कुरा कर राम-लक्ष्मण का उपहास करने में रावण का गढ़ अभिप्राय अपना भय छिपाने का है । लधु से बड़े तपस्वी की कल्पना होना 'गूढ़ोत्तर अलंकार' है। कह सुक नाथ सत्य सब बानी । समुझहु छाडि प्रकृति अभिमानी । सुनहु वचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधी ॥२॥ शुक ने कहा-हे नाथ ! यह सब गणी सत्य है, आप अहङ्कारी प्रकृति छोड़कर सम. भिये । स्वामिन् ! मेरी बात क्रोध त्याग कर सुनिये, रामचन्द्रजी से विरोध त्याग दीजिये ॥२॥ अति कोमल रघुबीर सुभाऊ । जापि अखिल लोक कर.राऊ ॥ मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिहीं। उर अपराध न एकउ धरिहीं ॥३॥ यद्यपि रघुनाथजी सम्पूर्ण लोकों के मालिक हैं, तथापि उन का स्वभाव बहुत कोमन । है । प्रभु रामचन्द्रजी मिलते ही माप पर कृपा करेंगे और एक भी अपराध को मन में न ले श्रावगे॥३॥