पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९१९

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रामचरित मानस । कामियों से हरिकथा का कहना वैसा ही निष्फल है, जैसे असर (रेहवाली परती ज़मीन) में बीज बोने का फल होता है ॥२॥ असकहि रघुपति चाप बढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा । ' सन्धाने प्रक्षु बिसिख कराला । उठी उदधि उरअन्तर ज्वाला ॥३॥ ऐसा फाह कर रघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया, यह मत लक्ष्मणजी के मन में अच्छा संगा। प्रभु ने विकराल बाण का सन्धान किया, साथ ही समुद्र के हृदय में ज्वाला उठी ॥३॥ चाण का सन्धान करना कारण; समुद्र में ज्वाला उत्पन्न होना कार्य, दोनों का साथ ही प्रकट होना 'प्रक्रमातिशयोक्ति अलंकार' है। मकर उरग झष-गन अकुलाने। जरत जन्तु जलनिधि जय जाने ॥ कनकधार भरि मनि गल नाना। विप्र रूप आयेउ तजि माना ॥४॥ मगर, साँप और मच्छ श्रादि जीवगण व्याकुल हो उठे; जब समुद्र ने उन्हे जलते जाना, तब सुवर्ण के थाल में नाना प्रकार के मणियों को भर कर अमिमान त्याग ब्राक्ष के रूप में सामने आया ॥४॥ ब्राह्मण का वेष लेने में अवध्य होने की ध्वनि है। दो-काटेहि पै कदली फरइ, कोटि जतन कोउ सौंच । शिलयं न मान खगेस सुनु- डाटेहि पै नव नीच ॥८॥ कागभुशुण्डजी कहते हैं-हे पक्षिराज ! सुनिये, योला काटने ही पर फलता है चाहे कोई करोडौँ यत्न से सींचे । नीच बिनती नहीं मानते, चे डाटने ही पर नवते हैं ॥५॥ कदली काटने ही पर फलता-उपमेय वाक्य है और नीच डाटने ही पर नवता-उपमान वाक्य है। बिना वाचक पद के केलावृक्ष और नीच पुरुष में समता दिखाने का भाव प्रति. विम्बित होना 'इष्टान्त अलंकार है। चौ०-समय सिन्धुगहि पद प्रभु केरे । छमहु नाथ सब अवगुन मेरे । गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ॥१॥ समुद्र भयभीत हो प्रभु रामचन्द्रजी के चरण को पकड़ कर कहने लगा-हे नाथ ! मेरे सब अपराधों को क्षमा कीजिये। स्वामिन् ! आकाश, पवन, अग्नि, पानी और पृथ्वी हम का स्वाभाविक जड़ करनी है अर्थात् ये पांचो जड़ में गिने जाते हैं ॥१॥ सक्षुद्र के कथन में लक्षणामूलक अगुद व्यङ्ग है कि जड़ की जड़ता क्षमा योग्य है, प्रकृति के निर्माणकर्ता आप ही हैं । आपने इन्हें जड़ बनाया है, फिर मेरा कौन सा दोष है ? तक प्रेरित माया उपजाये । सृष्टि हेतु सब ग्रन्थन्हि गाये .. प्रभु आयसु जेहि कहँ जसि अहई । सो तेहि भाँति रहे सुख लहई ॥२॥ आप की आशा से मायां ने सृष्टि के लिये इन्हें उत्पन्न किया है, इस को सभी अन्यों ने कहा है। प्रभु की आज्ञा जिसको जैसी है, वह उसी तरह रहने से सुख पाता है ॥२॥