पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९२१

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२ रामचरित मानस । एहि सर सम्म उत्तर तट बासी । हतहु नाथ खल नर अघ रासी । सुनि पाल सागर मन पीरा । तुरतहि हरी राम रनधीरा ॥३॥ हे नाथ ! इस वारण से पाप के राशि दुष्ट मनुष्य हमारे उत्तरी किनारे पर निवास करते है, उनका वध कीजिये । रणधीर कृपालु रामचन्द्रजी ने यह सुन कर तुरन्त ही समुद्र के मन का दुःख दूर कर दिया ॥३॥ समुद्र का दुष्ट वध के लिये कहना धारण और तुरन्त उनका वध करना कार्य दोनों का लाथ ही होना असमातिशयोक्ति अलंकार है। ये शुद्र आमीर जाति के यड़े पापात्मा थे, जो ससुर के किनारे इमफुल्य नामक प्रदेश में रहते थे। तरह तरह के उपद्रव करके समुद्र को दुःख दिया करते थे। देखि राम बल पौरुष मारी। हरपि पोनिधि प्रयउ सखारी॥ सकल चरित कहि प्रमुहि सुलावा । चरन. बन्दि पायोधि सिधावा ॥ रामचन्द्रमी के सारी बल और पुरुषार्थ को देख कर समुद्र प्रसन्न होकर सुखी हुआ! उसने (उन बामीरों का) सम्पूर्ण चरिम कह कर प्रभु को सुनाया और चरणों में प्रणाम करके चला गया ॥३॥ हरिगीतिका-छन्द । निज भवन शवनेउ सिन्धु नीरघुपतिहि यह मत भायऊ । यह चरित कलिमलहर जथामति, दास तुलसी गायऊ । सुख भवन संसय समन दमल बिषाद रघुपति गुन गना। तजि सकल आस अरोख गावहि, सुनहि सन्तत सठ मना ॥६॥ समुद्र अपने स्थान को गया और रघुनाथजी को उसकी सलाह अच्छी लगी । यह कलि के पापो का हरनेवाला चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार तुलसीदास ने गाया है। रधुनाथजी के गुण-समूह सुख के भवन, लन्देह नाशक और दुःखको दमन करनेवाले हैं। अरे मूर्ख मनातू सम्पूर्ण प्राशाओं को त्याग कर निरन्तर विश्वास-पूर्वक हरिकथा को गान कर और सुन ॥६॥ दो-सकल सुमङ्गल दायक, रघुनायक गुन गान । सादर सुनहि ते तर्राह भव, सिन्धु घिना जलजान ॥३०॥ श्रीरघुनाथजी के गुणों का गान सम्पूर्ण मङ्गली का देनेवाला है। जो प्रारं के साथ सुनेगे वे किना अहाज के संसार-सोगर से पार हा जायगे ॥६॥ इति श्रीरामचरितमानसे सकलकलिकलुष विध्वंसने ज्ञान सम्पादनेो नाम पञ्चमः सेोपानः समाप्तः। इस प्रकार सस्पूर्ण कलिमल-संहारक श्रीरामचरितमानस में ज्ञान सम्पादन नावाला यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।

शुभमस्तु-मङ्गलमस्तु

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