पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९२४

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पष्ट सापान, लङ्काकाण्ड । ८५१ । चौ०-यह लघु जलधि तरत कति बारा अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा ॥ प्रभु प्रताप बड़वानल स्यारी । साखेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥१॥ यह छोटा समुद्र पार करने में कितनी देर है ? अर्थात् पार उतरा उतराया है, यह सुन कर फिर हनुमानजी ने फहो-हे स्वामिन् ! श्राप के प्रताप रूपी भारी बड़वानल ने पहले समुद्र का जल सुखा दिया था ॥१॥ जास्ववान के इस कथन में कि जिनका नाम संसार सागर के लिए सेतु है, उन्हें इस छोटे से समुद्र के पार होने में कितनी देर है ? 'कव्यापत्ति अलंकार' है । हनूमानजी का यह कहना कि प्रभु के प्रताप रूपी वड़वानल ने पहले ही समुद्र का जल सोख लिया है। कारण से पहले कार्य का प्रकट होना 'अत्यन्तातिशयोकि अलंकार' है। तव रिपु-नारि रुदन जल-धारा । मरेउ बहोरि भयउ तेहि खारा ॥ सुनि अति-उक्ति पान-सुत केरी । हरणे. कपि रघुपति तन हेरी ॥२॥ आप के शन (रावण) की स्त्रियों के रोने से जल की धारा बही; इससे फिर यह भरा, इसी से खारा हुना। पवनकुमार की यह अत्युकि सुन कर वानर इन्द रघुनाथजी की ओर देख कर प्रसा हुए ॥२॥ पहले हनूमानजी कह पाये हैं कि आप के प्रताप रूपी वाडवाशि ने प्रथम हो समुद्र के जल को सुखा दिया है, फिर यह जल-पूर्ण कैसे दिखाई देता है ? इसका युक्ति से समर्थन करना कि शत्रु को स्त्रियों के पास से भरा 'काव्यलिङ्ग अलंकार है' । समुद्रजल उपमेय को असत्य ठहरा कर यह कहना कि आँसू कपी उपमान से भरा और इसी से खारा हुआ यह हेतु बतलाना हेत्वापद्रुति अलंकार' की संसृष्टि है। जामवन्त बोले दोउ भाई। नल-नीलहि सत्र कथा सुनाई। राम-प्रताप सुमिरि मन माहीं । करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं ॥३॥ जामवन्त ने नल और नील दोनों भाइयों को बुलाया और स कथा कह सुनाई। उन्होंने कहा-रामचन्द्रजी के प्रताप को मन में स्मरण कर के सेतु की रचना करो, इसमें कुछ भी परिश्रम नही है ॥३॥ जाम्बवान ने पुल बनाने की आवश्यकता कह कर बल-नील से कहा कि लड़कपन में आप लोगों को मुनियों का साप हुआ कि जिस पत्थर को छुप्रोगे वह काठ को तरह पानी पर तिरेगा। वह शाप माज के लिये आशीर्वाद रूप है, इससे आप दोनों भाइयों को समुद्र में सेतु निर्माण के लिये कुछ प्रयास न होगा। जाम्बवान के इस कथन में अनुशा और काव्य- लिङ्गकी ध्वनि है। बोलि लिये कपि निकर बहारी । सकल सुनहु जिनती कछु मारी। राम-चरन-पङ्कज धरहू । कौतुक एक भालु कपि फिर पानर-वृन्द को बुला लिया और उनसे कहा-भाइयो! पाप सय मेरी कुछ करहू ॥४॥ .