पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९२५

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शामचरित मानस ५२ विनती सुनिए । रामचन्द्रजी के चरण कमल हृदय में रख वानर और भालु मिल कर एक खेल करते जाओ धाबहु भएकट-बिकट अरूथा । आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा । सुनि कपि भालु चले करि हूहा । जय रघुबीर प्रताप-समूहा NAR अण्ड के झुण्ड भीम बन्दर दौड़ा, वृक्ष तथा पहाड़ों के समूह ले आओ। सुन कर वानर भालु हुनड़ कर के यह कहते हुप चलो कि प्रताप पुक्ष रघुनाथजी की जय हो ॥५॥ दो अति उतत गिरि पादप, लीलहि लेहिँ उठाइ । आनि देहि नल नीलहि, रचहिँ ते सेतु बनाइ ॥१॥ अत्यन्त ऊँचे पहाड़ और वृक्ष खेल में ही उठा लेते हैं, ला ला कर नल नील को देते हैं,धे सुधार कर सेतु बनाते हैं ॥१॥ सभा की प्रति में प्रति उत तक सैलगनः पाठ है। वहाँ भएड के झुण्ड पहाड़ और वृक्ष, अर्थ होगा। चौ०-सैल निसाल आनि कपि देहीं। कन्टुक इव नल नील ते लेहीं। देखि खेतु अति सुन्दर रचना । बिहसि कृपानिधि बोले बचना ॥१॥ बड़े बड़े पहाड़ धन्दर ला लाकर देते हैं नलनील गेंद के समान लेते (और सेतु बनाते) हैं। सेतु की अत्यन्त सुन्दर रवना देख कृपानिधान रामचन्द्रजी हँस कर वचन वाले ॥१॥ परम-रस्य उत्तम। यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिँ बरनी थापना । मारे हृदय परम-कलपना ॥२॥ यह भूमि अतिशय रमणीय और श्रेष्ठ है, इसकी अनन्त महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। यहाँ मैं शिवजी की स्थापना काँगा, मेरे मन में हद से ज्यादा इसकी उद्भावना (अनुमान) है ॥२॥ सुनि कपीस बहु दूत पठाये। मुनिबर सकल बोलि लेइ आये ॥ लिङ्ग थापि विधिवत करि पूजा । सिव समान प्रिय माहि न दूजा ॥३॥ यह सुन कर सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, वे जा कर समस्त मुनिवर को बुला लाये । लिङ्ग स्थापन कर के विधि-पूर्वक पूजा की और कहा-शिवजी के समान मुझे दूसरा कोई प्यारा नहीं है ॥३॥ लिव-द्रोही मम भगत कहावा । सो नर सपनेहुँ माहिँ न भावा ॥ सङ्कर-विमुख भगति चह मेरी । सो . नारकी मूढ़ मति थोरी ॥४॥ जो शिवजी का द्रोही होकर मेरा भक्ति कहाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे अच्छा नहीं लगता। यदि शङ्कर-विमुखी मेरो भक्ति चाहे तो वह अल्पबुद्धि, मूर्ख और नरक भोगने. वाला (पापी) है ॥ करिहाँ इहाँ सम्भु