पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९२८

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षष्ठ सेपान, लडाकाण्ड । चला कटक कछु बरनि न जाई । को कहि सक कपि-दल-बिपुलाई ॥५॥ धानरी सेना चली, उसका कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता, बन्दरों के इल की अधि- कता कौन कह सकता है ? (कोई नहीं) ॥५॥ दो०-सेतुबन्ध भइ भीर अति, कपि नम-पथ उड़ाहि। अपर' जलचरन्हि ऊपर, चढ़ि चढ़ि पारहि जाहि ॥१॥ सेतुबन्ध पर पड़ी भीड़ हुई (रास्तो मिखना कठिन हो गया, तब बहुतेरे) धन्दर आकाश- मार्ग से उस फर चले । और कितने ही वानर जल-जीवों पर चढ़ चढ़ कर पार जाते हैं ॥४॥ चौ०--अस कौतुक बिलोकि दोउ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई । सेन सहित उत्तरे रघुबीश । कहि न जाइ कपि-जूथप-मीरा ॥१॥ ऐसा खेल देख कर दोनों भाई हँसे और कृपालु रघुनाथजी चले । सेना के सहित राम- चन्द्रजी पार उतरे, वानर सेनापतियों की भीड़ कही नहीं जा सकती ॥१॥ सिन्धु पार प्रभु डेरा की हा । सकल कपिन्ह कहँ आयुस दीन्हा । खाहु जाइ फल मूल सुहाये । सुनत भालु कपि जहँ तह धाये ॥२॥ प्रभु रामचन्द्रजी समुद्र पार जा डेरा किया और सम्पूर्ण बन्दों को श्राज्ञा दी कि जा कर तुम लोग अच्छे फल मूल खामो, सुनते ही जहाँ तहाँ भालू और बन्दर दौड़े ॥२॥ सब तरु फरे राम-हित-लागी । रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥ खाहिँ मधुर-पाल विदप हलावहिँ । लङ्का सनमुख सिखर चलावहिं ॥३॥ 'रामचन्द्रजी के उपकार के लिए सभी वृक्ष फले, समय और बेसमय फलने की चाल उन्हों ने छोड़ दी अर्थात जिलका समय है वे तो फले ही हैं, पर जिनके फलने का मौलिम नहा है वे भी फले हैं । वानर मीठे फल खाते और वृत्तों को हिलाते हैं, खङ्का की ओर पत्थर फेंकते हैं ॥३॥ सभा की प्रति में रितु अनरितु अकाल गति त्यागी पाठ है। जह कहुँ फिरत निसाचर पावहिं । धेरि सकल बहु नाच नचावहिं । दसनन्हि काटि नासिका कानो । कहि प्रभुसुजस देहि तथ जाना ॥४॥ जहाँ कही फिरते हुए राक्षस पाजाते हैं, उसे घेर कर वे सव बहुत नाच नचाते हैं। दाँतों से नाक कान काट कर मभु रामजन्द्रजी का सुयश कह कर सब जाने देते हैं ॥ ४॥ जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥ सुनत स्रवन बारिधि-बन्धाना । दसमुख बालि उठा अकुलाना ॥५॥ जिनके नाक कान का नाश किया उन राक्षसाने जाकर सब धात रावण से कहीं । समुद्र का बँध ज्ञाना कान से सुनते ही घबरा कर दसों मुख से वोल उठा ॥५॥