पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९२९

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८५६ रामचरित मानस। दो०--बाँधेउ बननिधि नीरनिधि, जलधि सिन्धु बारीस । सत्य तायनिधि कस्पति, उदधि पयोधि नदीस ॥५॥ क्या सचमुच यननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिन्धु, बारीश, तोयनिधि, कम्पति, दधि, पयोधि, नदीश को बाँध दिया १ ॥५॥ घबराहट से रावण को वित्त विभ्रम होगा 'श्रावेग सवारी भाव है, क्योंकि यह अकुला कर साथ ही दसे सुख से बोल उठा कि क्या सचमुच समुद्र पर पुल च गयाबन्द' की पूर्ति के लिए कविजी ने लमुद्र के दस पर्थ्यायो नाम कहे हैं। चौ०-व्याकुलता निज समुझिवहारी। बिहँसि चला गृह करि मय भारी। मन्दोदरी सुनेउ प्रभु ओयो । कौतुक ही पाथोधि बँधायो ॥१॥ अपनी व्याकुलता को समझ फिर हँस कर उस भय को भुला कर राजमहल की भोर चत्ता । मन्दोदरी ने सुना कि प्रभु रामचन्द्रजी खेल ही में समुद्र पर पुल घंधया कर इस पार श्रा पये ॥१॥ कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बाली परम-मनोहर बानी ॥ अञ्चल रोपा । सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा ॥२॥ हाथ पकड़ कर पत्ति को अपने महल में ले आई और अत्यन्त मनोहर वाणी बोली। चरणा में सिर नवा कर और आँचल फैला कहने लगी है प्यारे! क्रोध छोड़ कर मेरी बात सुनिए ॥२॥ रावण के हृदय में भय स्थायी भाव है, इसी से रमहल का मार्ग भूल गया; तब मन्दोदरी हाथ एकड़ कर मन्दिर में लिवा ले गई। नाथ भैर कीजे ताही साँ। बुधि बल सकिय जीति जाही साँ॥ तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा । खलु खद्योत दिनकरहि जैसा ॥३॥ हे नाथ ! वैरत्व उसी से करना चाहिए जिससे बुद्धि-बल से जीव हो सके। तुमसे और रघुनाथजी से कैसा अन्तर है जैसे निश्चय ही जुगनू और सूर्य ॥३॥ अति बल मधु-कैटम जिन्ह मारे । महाबोर दिति-सुत सहारे । जेहि बलि बाँधि सहसभुज मारा । सोइ अवतरेउ हरन महि-भारा ॥४॥ जिम्हों ने अत्यन्त वली मधु और कैटभ दैत्यों को मार डाला तथा बड़े बड़े बीर दिति के पुत्रों का संहार किया । जिन्हों ने बलि को बाँध कर (वधुश्रा बनाया) और सहस्रार्जुन का वध किया, वे ही भगवान पृथ्वी का बोझ दूर करने के लिए अवतरे हैं ॥३॥ , मन्दोदरी को कहना तो यह अभीष्ट है कि रामचन्द्रजी विष्णु के अवतार हैं, परन्तु इस बात को सीधे शब्दों में न कह कुछ घुमा फिरा कर कहना 'प्रथम पर्यायाकि अलंकार है नाइ सिर