पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

॥ रामचरित मानस । राम निकाई रावरी, है सबही को नीक । जौं यह साँची है सदा, ती नीको तुलसीक ॥ हे रामचन्द्रजी ! यदि आप की अच्छाई सभी के लिए भली है और यह बात सच्ची है, तो तुलसी का भी सदा अच्छा ही होगा। एहि बिधि निज गुन दोष कहि, सबहि बहुरि सिर नाइ । बरनउँ रघुबर-बिसद-जस, सुनि कलि कलुष नसाइ ॥२६॥ इस तरह अपना गुण-दोष कह कर फिर सभी को सिर नवा कर श्रीरघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसे सुनकर कलियुग के दोष नष्ट हो जाते हैं ॥ २६ ॥ चौ०-जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई कहिहउँ सोइ सम्बाद बखानी । सुनहु सकल सज्जन सुख मानी जो सुहावनी कथा याज्ञवल्क्यजी ने मुनिवर भारद्वाजजी को सुनाई थी; उस संवाद को मैं बखान कर कहूँगा । हे सज्जनो! आप लोग सुख मान कर सुनिए ॥१॥ सम्भु कीन्ह यह चरित सुहावा । बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥ सोइ शिव कागभुसुंडिहि दीन्हा । रामभगति अधिकारी चीन्हा ॥२॥ यह सुहावना चरित्र शिवजी ने निर्माण किया, फिर उन्होंने कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही रामभक्ति का अधिकारी जान कर शिवजी ने कागभुशुण्ड को दिया ॥२॥ तेहि सन जागबलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि मरवाज प्रति गावा ॥ ते खोता बकता सम सीला । समदरसी जानहिँ हरिलीला ॥३॥ फिर उन (कागभुशुण्डजी) से याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होंने भरद्वाजजी से वर्णन किया। वे श्रोता-वका समान स्वभाववाले समदर्शी (निष्पन ) और भगवान् की लीला के जाननेवाले थे ॥३॥ जानहिँ तीनि काल निज-ज्ञाना । करतल गत आमलक संमाना । औरउ जे हरिभगत सुजाना । कहहिँ सुनहिँ समुझहिँ विधि नाना॥४॥ वे अपने ज्ञान से तीनों काल की बात हाथ पर रक्खे हुए आँवले के समान जानते थे। और भी जो चतुर हरिभक्त नाना प्रकार से कहते सुनते और समझते हैं.॥४॥ दो-मैं पुनि निज गुरुसन सुनी, कथा सो सूकरखेत । समुझी नहिँ तसि बालपन, तब अति रहे: अचेत.॥ फिर मैं ने अपने गुरुजी से वह कथा वराहक्षेत्र में सुनी। तब बालपन के कारण बहुत नासमझ था, इससे जैसी हरिकथा है वैसी नहीं समझी।