पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३०

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षष्ठ सोपान, लङ्काकाण्ड । तासु बिरोध न कीजिय नाथा । काल करम जिव. जाके हाथा ॥३॥ हे नाथ । उनका विरोध न कीजिए, जिनके हाथ में काल, कर्म और जीव सभी हैं ॥५॥ दो०-रामहि साँपिय जानकी, नाइ कमल-पद माथ । सुत कहँ राज समर्षि बन, जाइ लजिय रघुनाथ ॥६॥ जानकी रामचन्द्रजी को सौंप कर उनके कमल-चरणों में मस्तक नवाएये । पुत्र को राज्य दे कर धन में जा रधुनाथजी का भजन कीजिए ॥६॥ चौ०- नाथ दीन दयाल रघुराई । बाघउ सनमुख गये न खाई ॥ चाहिय करन सा सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते ॥१॥ हे नाथ ! रघुनाथजी दीनध्याल हैं, सन्मुख जाने पर तो बाघ भी नहीं खाता। जो करना चाहिए वह सब पाप कर बुके, देवता, दैत्य, जड़ और चेतन को जीत लिया (इससे बढ़ कर बड़ाई अब क्या होगी? ॥१॥ सन्त कहहि असि नीति दसानन । चौथो पन जाइहि छप कानन ॥ तासु भजन कीजिय तहँ भरता। जो करता पालन संहरता ॥२॥ हे दशानन ! सत्पुरुषों ने ऐसी नीति कही है कि चौथे पन में राजा को वन में जाना चाहिए । हे स्वामिन् ! यहाँ जाकर आप उनका भजन कीजिए'जो जगत के उत्पन्न, और संहार करनेवाले हैं ॥२॥ सोइ रघुबीर प्रनत-अनुरागी । मजहु नाथ ममता सब त्यागी ॥ मुनिबर जतन कहिँ जेहि लागी । भूप राज तजि होहि बिरागी ॥३॥ वही भक्तों पर प्रेम करनेवाले रघुनाथजी हैं, हे नाथ ! सारा ममत्व छोड़ कर उनको मजिए । जिनके लिए मुनिवर यत्न करते हैं और राजा लोग राज्य छोड़ कर विरागी हो सोइ कोसलाधीस रघुराया । आयउ करन ताहि पर दाया । जाँ पिय मानहु मार लिखावन । हाइ सुजस तिहुँ पुर अति पावन ॥४॥ वे ही कौशलेश्वर रघुनाथजी तुम्हारे ऊपर दया करने आये हैं। हे प्यारे यदि मेरा सिखोवन मानोगे तो तीनों लोकों में आप का अत्यन्त पवित्र यश होगा ॥७॥ दो-अस कहि नयन नीर भरि, गहि पद कम्पित भात । नाथ भजहु · रघुनाथहि, अचल होइ अहिवात ॥७॥ ऐसा कह कर आँखों में आँसू भर कर, शरीर काँपते हुए पाँव पकड़ कर कहा-हे नाथ! रघुनाथजी को मजो तो मेरा अहिवात अचल हो (विधवा कहलाने का डर जाता रहे) ॥७॥ । यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है कि सन्मुख निगाह रखने पर उसे वाघ नहीं खाता । अथवा व्यान तिरछा होने. पर या स्वयम् तिरछे होकर खाता है, सामनेवाले को या सीधे हो कर नहीं खाता, यह उसकी चाल है। पालन जाते हैं ॥३॥ १०८