पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३१

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रामचरित मानस। सभा की प्रति में इस दोहे का पाठ इस प्रकार है 'अस कहि लोचन वारि भरि, गहि पद कम्पित गात । नाथ भजा रघुवीर-पद, अचल हाइ अहिवात'। चौ०-तब रावन मय-सुता उठाई। कहइ लाग खल निज प्रभुताई ॥ ते प्रिया लथा भय माना । जग जोधा को माहि समाना ॥१॥ तब दुष्ट रावण मन्दोदरी को उठा कर अपनी महिमा कहने लगा-हे प्रिये ! सुम, व्यर्थ ही भय माना है, संसार में मेरी घरावरी का योद्धा कौन है ? ||१|| रावण का अन्य योशाओं की अपेक्षा अपने में अधिकत्व मानना 'गर्व सशारी भाव' है। बरुन कुबेरु पवन जम काला । भुजं बल जितेउँ सकल दिगपाला ॥ देव दनुज नर सब बस मेरे । कवन हेतु उपजा भय तोरे ॥२॥ मैं ने अपनी भुजाओं के बल से वरुण, कुवेर, पवन, यम, काल श्रादि सम्पूर्ण दिगपालों को जीत लिया। देवता, दैत्य और मनुष्य सब मेरे वश में हैं, फिर किस कारण तुझे डर उत्पन्न हुश्रा है।।२॥ नाना विधि तेहि कहेसि बुझाई। सभा बहोरि बैठ सो जाई ॥ मन्दोदरी हृदय अस जाना। काल-बिबस उपजा अभिमाना ॥३॥ अनेक प्रकार कह कर उसे समझाया, फिर राजसभा में जा कर वह बैठा । मन्दोदरी ने मन में यह समझ लिया कि काल के अधीन होने से ही स्वामी को अहवार उत्पन्न हुआ है. (अब इनका नचना कठिन है ॥३॥ समा आइ मन्त्रिन्ह तेहि बूझा । करब कवनि बिधि रिपु से जूझा ॥ कहहि लचिव सुनु निलिचर-नाहा । बार बार प्रभु पूछहु काहा ॥४॥ लभा में श्राकर उसने मन्त्रियों से पूँगा कि शव, से किस तरह युद्ध करना होगा ! मन्त्री कहने लगे हे राक्षसराज ! मुनिए, आप बार बार या पूछते हैं ! ॥४॥ कहहु कवन भय करिय बिचारा । नर कपि भालु अहार हमारा ॥२॥ कहिए, कौन से भय का विचार किया जाय, मनुष्य वानर और भालू तो हमारे प्रहार ही हैं ॥ ५॥ दो अचान सबहि के सवन सुनि, कह प्रहस्त कर जारि । नीति-बिरोध 'न करिय प्रभु, मन्त्रिन्ह मति अति-धोरि ॥८॥ सब के वचन कान से सुन प्रहस्तं हाथ जोड़ कर कहने लगा-हे स्वामिन् नीति विरुद्ध कार्य न कीजिए, मन्त्रियों की बुद्धि.बहुत ही तुच्छ है ॥ .