पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३३

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१६० शासमरिनम्मानस। बौं-यह मत मानहु प्रभु सारा । उभय प्रकार सुजस जग तारो ॥ सुत सन कह इसकंठ रिलाई । अलि अति सठ केहि ताहि सिखाई ॥१॥ हे राजन् ! यदि मेरी यह लम्मति मान लीजिये तो दोनों प्रकार (सुलह और युद्ध से) संसार में श्राप की सुकीर्ति ही होगी। रावण क्रोधित हो कर पुत्र से कहने लगा-अरे मूर्ख ! तुझे ऐसी बुद्धि किसने सिखाई है ? ॥१॥ प्रहस्त ने रावण के कल्याण की सलाह दे कर अच्छा उद्योग किया, परन्तु उससे बुरा फख क्रोध का प्रकट होना'तृतीय विषम अलंकार है। अनहीं लें उर संसय हाई । बेनु-मूल सुत भयेहु घाई ॥ सुनि पितु गिरा परुष अतिधारा । चला भवन कहि बचन कठोरा ॥२॥ अभी से मन में सन्देह होता है, पुत्र ! तू बाँस की जड़में भरभण्डा पैदा हुआ ! इस तरह पिता की अत्यन्त भीषण वाणी सुन कर वह घर को चला और कड़ी बात कही कि--||२|| धमोझ राजापुर प्रान्त की बोली में 'सत्यानाशी' को कहते हैं। हित मत ताहि न लागत कैसे। काल-बिबस कह भेषज जैसे ॥ सन्ध्या समय जानि दलसीसा । भवन चलेउ निरखत भुज-बीसा ॥३॥ भलाई की सलाह तुझे कैसे नहीं लगती है जैले-काल के अधीन (रोगी) को औषधि नहीं कारगर होती। फिर सन्ध्या-समय जान कर रावण अपनी बीस भुजाओं को देखते हुए रङ्गमहल की ओर चला ॥३॥ रावण के भुज-निरीक्षण में गर्व और असूया सञ्चारी भाव की ध्वनि है कि मैं ने अपनी इन वीस भुजाओं के भरोसे वैर बढ़ाया है, फिर दो भुजावाला प्रहस्त कट ही गया तो क्या ? । दूसरी अपनी दुर्नीति से शज्ञ सञ्चारीसाव की ध्वनि है कि मैं ने ऐसा विरोध ठाना है कि अब हन भुजाओं के अस्त होने का समय आ गया। लङ्का सिखर उपर आगारा । अति-विचित्र तहँ होइ अखारा ॥ बैठ जाइ तेहि मन्दिर रावन । लागे किलर गुन-गन-गावन ॥४॥ लक्षा की चोटी पर एक अत्यन्त विचित्र मन्दिर है, वहाँ अखारा (तमाशा दिखानेवालों और गाने बजानेवालों का जमावड़ा) होता है। रावण जा कर उस मकान में बैठ गया और फिशर लोग गुण-गणु गान करने लगे ॥४॥ बाहिँ ताल पखाउज बीना । कृत्य करईि अपछरा प्रबीना ॥१॥ पखावज (एक बाजा जो मृदङ्ग से कुछ छोटा होता) है और वीणा बाजा, ताल से बजते हैं, चतुर अप्सराय नाच करती हैं ॥५॥ दो०-सुनासीर सत सरिस सो, सन्तत करइ बिलास । परम-प्रबल रिपु सीस पर, तदपि न कछु मन त्रास ॥१०॥ वह सैकड़ों इन्द्र के बराबर सदा विहार (ऐश-आराम ) करता है । यद्यपि अत्यन्त जब-