पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३४

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षष्ठ सोपान, लडाकावड । दस्त शत्रु सिर पर आ धमके हैं, तो भी मन में कुछ डर नहीं है ॥१०॥ शत्र रूपी प्रतिवन्धक के विद्यमान रहते निर्भय रहना अर्थात् प्रांस का न होना तृतीय विभावना अलंकार है । गुटका में 'तयपि सोच न त्रास' पाउ है । उसका अर्थ होगा- तो भी कुछ सोच या डर नहीं है। चौ०-इहाँ सुबेल-सैल रघुबीरा । उतरे सेन-सहित अति-श्रीरा॥ सैल- -सङ्ग एक सुन्दर देखी । अति उत्तङ्ग सम्म सुस जिलेखी यहाँ रघुनाथजी सेना समेत बड़ी भीड़भाड़से सुवेल-पर्वत पर उतरे। एक सुन्दर पहाड़ का पूरा देख कर जो बहुत ऊँचा, समतल और अधिक स्वच्छ था ॥१॥ तहँ तरु-किसलय-सुमन सुहाये । लछिमन रचि निज हाथ डसाये ॥ तापर रुचिर मृदुल सृगछाला । तेहि आसन आलीन कृपाला ॥२॥ यहाँ वृक्षों के सोसल पाने और सुन्दर फूलों को अपने हाथ से बना कर लक्ष्मणजी ने बिछाया। उस पर शोभन मुलायम मृगचर्म डाल दिये, उस आसन पर कृपालु रामचन्द्रजी बैठ गये ॥२॥ प्रभु कृत सीस कपीस उछङ्गा । बाल दहिन दिलि चाप निषङ्गा ॥ दुहुँ कर-कमल सुधारत बाना । कह लकेसं मन्त्र लगि काना ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी सुग्रीव की गोद में मस्तक किये हुए बाँये धनुष और दाहिनी ओर तरकस रक्खे हैं। दोना हस्त-कमलों से बाण सुधारते हैं और कान में लग कर विभीषण सलाह दे रहे हैं ॥३॥ बड़भागी अङ्गद हलुमाना । चरन-कमल चाँपत विधि नाना ॥ प्रभु पाछे लछिमन बीरासन । कति-निषा कर-बान-सरासन ॥४॥ अहद और हनूमान बड़े भाग्यवान हैं, जो चरण-कमलों को अनेक प्रकार से मोड़ रहे हैं। स्वामी के पीछे लक्ष्मणजी कमरमें तरकस कसे और हाथ में धनुष-बाण लिये वीर श्रासन से बैठे हैं ॥४॥ इन बातों में राजनीति की ध्वनि है । मस्तक सुग्रीव की गोद में रख कर उसकी रक्षा को भार उन्हें सुपुर्द किया। बाँये दाहिने धनुष-तरकस को शरीर का भार दिया। बाणों को सुधारने में उनका आदर और पुरुषार्थ के समय की सूचना है। कान विभीषण को देना अर्थात् जो तुम शत्र, के विषय में कहोगे वही करूँगा। अंगद हनूमान हो पाँव दे कर सूचित किया कि संग्राम में इनका अचल विचल करना तुम लोगों के हाथ है। इन सब की सावधानी के लिये धनुष बाण हाथ में लेकर लक्ष्मणजी पीछे बैठे हैं, यदि कोई आज्ञा के प्रतिकूल होगा तो मैं दण्ड दूंगा । इस मर्म को सूचित करने के लिए युक्ति-पूर्वक क्रिया करना, किसी को सिर, किसी को कान, किसी को पाँव की रक्षा का भार समर्पण करना 'युक्ति अलंकार है।