पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३७

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रामचरितमानस । चौ०-देखु बिभीषन दच्छिन आला । धन घमंड दामिनी बिलासा ॥ मधुर मधुर गरजइ धन घोरा । अष्टि होइ जनि उपल कठोरा॥१॥ है विभीषण ! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल गर्व से उमड़े हैं और बिजली चमकती है। वे मेघ धीमी धीमी भीषण गर्जना करते हैं, कठोर पत्थरों की वर्षा तो न होगी ॥१॥ रावण के अखाड़े का गाना, बाजा सुन कर और मेघडस्वर तथा आभूषणों की चमक देख कर रामचन्द्र जी का उसे मेघों की घटो, गर्जना और बिजली की चमक मान लेना भ्रान्ति अलंकार है। कहइ बिभीषन सुनहु कृपाला । तड़ित न होइ न बारिद-माला ॥ लिखर उपर आगारी । तह दलकन्धर देख ‘अखारा ॥२॥ विभीषण ने कहा हे कृपालु सुनिए, यह न बिजली है और न मेघमाला ही है। लक्षा की चोटी के ऊपर मन्दिर है, वहाँ बैठ कर रावण नाच-तमाशा देखता है ॥२॥ रावण के यहाँ का गाना बजाना सुन कर जो. रामचन्द्रजी के मन में बादलों का भ्रम हुधा विभीषण का सच्ची बात कह कर उस भ्रम को दूर करना 'भ्रांत्यापलु ति अलंकार' है। छन्न घडलर सिर–भारी । लाइ जनु जलद घटा अति कारी ॥ मन्दोदरी सबन ताटङ्का । सोइ प्रभु जनु . दामिनी दमङ्का ॥३॥ वह छन और मेघडम्बर सिर पर धारण किये है, वही मानो अत्यन्त कालो बादलों की घटा है। हे प्रभो ! मन्दोदरी के कानों के कर्णफूल ऐसे मालूम होते हैं, मानो वह बिजली की चमक हो॥३॥ माजहिं ताल मृदङ्ग अनूपा । सोइ रव मधुर सुनहु सुर-भूपा ॥ प्रक्षु मुसुकान समुभि अभिमाना। चाप चढाइ बान सन्धाना ॥४॥ हे देवराज ! अनिए, मृदङ्ग अनुपम ताल से बजता है, उसी की मीठी ध्वनि है। प्रभु रामचन्द्रजी इस अभिमान को समझ कर मुस्कुराये और धनुष चढ़ा उस पर बोण का सन्धान किया ॥ दो-छन्न मुकुट ताटङ्क तन, हते एकही बान । सब के देखत सहि परे, सरम न कोऊ जान । तब एक ही बाण से रावण के छत्र, मुकुट और मन्दोदरी के कर्णफूल काट कर गिरा दिये । सब के देखते वे धरती पर गिर पड़े, परन्तु इसका भेद किसी ने नहीं जाना। रावण का नाच गान देख कर रामचन्द्रजी ने अदृश्य बाण छोड़ ऐसी सूक्ष्म क्रिया की कि उसका मम कोई न जान सका 'सूचम अलंकार' है। अस कौतुक करि राम-सर, प्रबिसेउ आइ निषङ्ग। रावन सभा ससङ्क सब, देखि महा-रस-मङ्ग॥१३॥ ऐसा खेल कर के रामचन्द्रजी के वाण श्राकर तरकस में पैठ गये। रावण की सभा में यह बड़ा भारी रसभ देख कर सब भयभीत हुए ॥१३॥