पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- षष्ठ सापान, लङ्काकाण्ड । चौ०-कम्प न भूमि न मरुत विखा । अब सब कछु नयन न देखा । सोचहिँ सब निज हृदय मझारी। अलगुन भयउ भयङ्कर भारी ॥१॥ न तो भूकम्प ही हुआ, न जोर की हवा चली और न कुछ अस्त्र शस्त्र प्राख से दिखाई दिये । सय हदय में सोचते हैं कि बड़ा भयङ्कर असगुन हुना ॥१॥ इस भीषण अशकुन के सम्बन्ध में शशा निवारणार्थ विचार करना 'वितर्क सहारीभाव है। दसमुख देखि सभा भय पाई । बिहॅखि बचन कह जुगुति बनाई । सिरउ गिरे सन्तत सुभ जाही । मुकुट खसे कस असगुन ताही ॥२॥ रावण ने देखा कि सभा.के लोग डर गये हैं, तब मुस्कुराकर युक्ति ले पात बनाकर कहने लगा-सिर का गिरना भी जिसके लिए शुभ हुआ उसका सुकुट खसकना श्रसगुन कैसे होगा ? (कुछ भी चिन्ता की बात नहीं है) ॥२॥ प्रत्यक्ष अशकुन की बात छिपाने की इच्छा से युक्ति-पूर्वक बहाने की बात कहना 'ब्याजोकि • अलंकार' है। सभा भय पाई इस वाक्य में सभा के लोग को लक्षणा है । गुटका में 'मुकुट परे कस असगुन ताही; पाठ है। किन्तु अर्थ दोनों को एक ही है। सयन करहु निज निज गृह जाई । गवने भवन घरन खिर नाई ॥ मन्दोदरी सोच उर बसे । जब ते खजनपूर महि खसेऊ ॥३॥ अपने अपने घर जा कर शयन करो, वे सह चरणों में सिर नवा कर घर चले गये । जब • से कान का आभूषण धरती पर गिरा, तब से मन्दोदरी के हृदय में सोच का निवास हुश सजले-नयन कह जुग कर जोरी । सुनहु प्रानपति बिनती मारी । कन्त राम-बिरोध परिहरहू । जानि मनुज जनि मन हठ धरहू ॥४॥ आँखों में आँसू भर फर और हाथ जोड़ कर कहने लगी-हे प्राणनाथ ! मेरी गिनती सुनिए । हे स्वामिन् ! रामचन्द्रजी से बैर त्याग दीजिए, उन्हें मनुष्य समझ कर मन में हठ न धारण कीजिए ॥en दो०-बिस्व-रूप रघु-बंस-मनि, करहु बच्चन विस्वासु । लोक कल्पना बेद कर, अङ्ग अङ्ग प्रति जासु ॥१४॥ मेरी-यात का विश्वास कीजिए कि रघुवंशमणि रामचन्द्रजी विश्व के रूप हैं । जिनके एक एक अक्ष में लोकों का निवास वेद अनुमान करते हैं ॥१४॥ रघुनाथनी के प्रों में मन्दोदरी ने बाह्माण्ड का साहरूपक पाँधा है। चौ०-पद-पाताल सीस-अज-धामा। अपर लोक अंग अंग बितामा ॥ भृकुटि-बिलास भयङ्कर-काला । नयन-दिवाकर कच-धन-माला ॥१॥ ' उनका चरण पाताल है, मस्तक ब्रह्मलोक है, अन्य लोकों को विधाम प्रत्येक ग्रहों में है। भौंह का घुमाना भयङ्कर काल है, नेत्र सूर्य हैं और बाल मेघमाला है ॥१॥ १०६ 1