पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/९४३

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. न शामचरित मानस । ब्रह्मा शिवं भी गुरु मिले तो मूर्ख को समझ नहीं होती, यह उपमेय वाक्य है और बादलों के पानी घरसने पर भी बेत फूलता फलता नहीं, यह उपमान वापय है 'फूलना फलना और 'चेत होना' दोनों का एक धर्म समानार्थ चाची शब्दो द्वारा प्रकट करना 'प्रतिवस्तूपमा अलंकार' है। चौ०-इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई । बेगि का करिय उपाई। जामवन्त कह पद सिर नाई ॥१॥ प्रातःकाल रघुनाथजी जगे और सर मन्त्रियों को बुला कर सलाह पूछो कि जल्दी कहो, स्या उपाय करना चाहिए ? चरणों में मस्तक नवा कर जाम्यवान बोले ॥१॥ सुनु सर्वज्ञ - सकल-उर-बासी । बुधि बल तेज धरम गुन रासी ॥ मन्त्र कहउँ निज-मित अनुसारा दूत पठाइय बालिकुमारा ॥२॥ हे सर्वज्ञ ! सबके हृदय में बसनेाले, बुद्धि, पल, तेज, धर्म और गुण के राशि महाराज ! सुनिए, मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह कहता हूँ कि पालिकुमार 'अगद) को दूत कार्य के लिए भेजिए ॥२॥ नीक मल्न सब के मन माना । अङ्गद सन कह कृपानिधाना । बालि-तनय बुधि बलगुन-धामा । लङ्का जाहु तात मम कामा ॥३॥ यह श्रेष्ठ मत लय के मन में अच्छा लगा, तय कृपानिधान रामचन्द्रजी ने अगद से कहा-हे तास बालिनन्दन ! श्राप धुद्धि, थल और गुणों के धाम हैं, मेरे कार्य के लिए सका में जाइये ॥३॥ बहुत बुझाइ तुम्हहिँ का कहऊँ । परम-चतुर मैं जानत अहऊँ । काज हमार तासु हित होई । रिपु सन करेहु बतकही सेाई ४॥ तुम्हें बहुत समझा कर क्या कहूँ, मैं तुमको परम-चतुर जानता हूँ । शत्रु से वही बात. चीत करना जिसमें हमारा काम हो और उसकी भलाई हो ॥४॥ सोध-प्रभु अज्ञा धरि लोस, चरन बन्दि अङ्गद उठेउ । सोइ गुन-सागर-ईस, राम कृपा जा पर करहु । स्वामी की आज्ञा माथे चढ़ा कर चरणों की वन्दना करके अङ्गद उठे और बोले । हे रामचन्द्रजी ! जिस पर आप कृपा करते हैं वही गुणों का समुद्र और गुणाधिपति है। स्वयं-सिद्ध सब काज नाथ मोहि आदर दियेउ। अस बिचारि जुबराज, तनु पुलकित हरषित हिये ॥१०॥ हे नाथ! माप के सब काम स्वयम् सिद्ध (आप ही ओपए) है, यह आपने मुझे पादर दिया है। ऐसा विचार कर युवराज मन में प्रसन्न हुए और शरीर पुलकोयमान हो गया ॥७॥ ,